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श्री समवसरणाध्ययनं नहीं हुए हैं । तन्मात्रों से भूतों की उत्पत्ति मानी जाती है । जैसे गंध तन्मात्रा से पृथ्वी की, रस तन्मात्रा से जल की, रूप तन्मात्रा से तेज या अग्नि की, स्पर्श तन्मात्रा से वायु की तथा शब्द तन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति होती है । सांख्य दर्शन की यह मान्यता अयुक्तियुक्त है क्योंकि यदि बाह्यभूतों के आश्रय से-ऐसा कहते हो तो वह ठीक नहीं है क्योंकि वे तो सदा से विद्यमान है। यह सारा जगत कभी ऐसा न रहा हों-अन्य प्रकार का रहा हो यह बात नहीं है । यदि प्रत्येक शरीर में आश्रितभूतों की उत्पत्ति पंच तन्मात्राओं से हुई हो, ऐसा कहो तो यह भी यथार्थ नहीं है । क्योंकि शरीर में त्वक-चमड़ी तथा अस्थि-हड्डियां हैं । वे कठिन स्वरूप युक्त पृथ्वी के अंश है तथा श्लेष्म-कफ और रक्त द्रव रूप जल है तो अग्नि अन्न का परिपाक करती है वह
। प्राण एवं अपान वायु है । शरीर में जो शुषिर-रिक्त स्थान है वह आकाश है । इस प्रकार का शरीर तन्मात्रों से उत्पन्न होता है-यह मानना भी सही नहीं है । क्योंकि कतिपय शरीर, वीर्य तथा रक्त से उत्पन्न होते हैं । अतः उनमें तन्मात्रों की गंध तक उपलक्षित नहीं होती । जो वस्तु अदृष्ट है-दृष्टिगोचर नहीं होती उसकी कारण रूप में कल्पना करना अप्रासंगिक है । अंडज, उद्भिज, अंकुर आदि भी किसी अन्य से उत्पन्न होते हैं, ऐसा समुलपक्षित होता है । अतः सांख्यदर्शन में विश्वास करने वाले अपनी प्रक्रिया-उत्पत्ति क्रम के अनुसार प्रधान से महत् तथा महत् से अहंकार इत्यादि की जो सृष्टि बतलाते हैं वह युक्ति रहित है । वे अपने सिद्धान्तों में अनुरक्त-आसक्त होने के कारण ऐसा कहते हैं । आत्मा का अकृतित्व स्वीकार करने पर कृत नाश एवं अकृताभ्यागम का दोष आता है । इससे बंध तथा मोक्ष का भी अभाव फलित होता है । आत्मा का निर्गुणत्व स्वीकार करने पर उसमें ज्ञानशून्य होने की आपत्ति आती है-वह ज्ञानरहित सिद्ध होती है । इस प्रकार सांख्यमतवादियों का प्रतिपादित केवल एक बच्चे के प्रलाप के समान है-निरर्थक है। प्रकति अचेतन-चैतन्य रहित है। वह आत्मा के लिये प्रवृत्त होती है । यह कथन भी युक्ति विवर्जित है।
अब बौद्ध मत का निरूपण किया जाता है-वहां बारह आयतनों के रूप में पदार्थ स्वीकार किये गये हैं । जैसे नेत्र आदि पांच इन्द्रिय, रूप आदि पांच इन्द्रिय विषय, शब्दायतन एवं धर्मायतन । सुखादि को धर्म कहा जाता है । इन बारह आयतनों का परिच्छेद-निश्चय प्रत्यक्ष एवं अनुमान-इन दो प्रमाणों द्वारा होता है । इस संदर्भ में जैनों का कथन है कि चक्षु आदि इन्द्रियाँ हमारे द्वारा अजीव के ग्रहण से गृहीत की गई है। भावेन्द्रिय जीव के ग्रहण से गृहीत है । रूप आदि विषय भी अजीव के ग्रहण से ले लिये गये हैं । अतः वे भी पृथक् नहीं माने जाने चाहिये । शब्द पौद्गलिक है । अतः शब्दायतन भी अजीव के ग्रहण से उसके अन्तर्गत आ जाते हैं । इसलिये प्रत्येक को पृथक् पृथक् पदार्थ स्वीकार करना युक्तिसंगत नहीं है । सुख एवं दुःख जिन्हें धर्मायतन कहा जाता है । यदि सातावेदनीय और असातावेदनीय के उदय स्वरूप है तो वे जीव के ही गुण हैं । अतः उनका जीव में ही अन्तर्भाव हो जाता है । यदि वे सुख दुःख के कारण-स्वरूप है, कर्म है तब पौद्गलिक होने के कारण वे अजीव के अन्तर्गत आ जाते हैं । बौद्धों द्वारा प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक कहा जाता है । निर्विकल्पक अनिश्चय रूप होता है । अतः वह प्रवृत्ति और निवृत्ति का अंग या कारण नहीं है । उसका प्रामाण्य-प्रमाण होना सिद्ध नहीं होता । इस तरह प्रत्यक्ष का अप्रामाण्य होने पर अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि वह प्रत्यक्ष पूर्वक होता है । अन्य आक्षेपों-आरोपों का परिहार अन्यत्र भली भांति विचार पूर्वक किया गया है इसलिये उनका यहां विस्तार से निराकरण नहीं किया जा रहा है । मीमांसक तथा लोकायतचार्वाक दर्शन में अभिहित-प्रतिपादित तत्त्वों का निराकरण अपनी बुद्धि द्वारा कर लेना चाहिये। वे अत्यन्त लोक विरुद्ध पदार्थों को स्वीकार करते हैं । अतः उनको यहां साक्षात् उपन्यस्त-प्रकट नहीं किया गया है । इस तरह इन सब से परिशिष्ट-बचे हुए या पृथक् तीर्थंकर निरूपित नौ या सात पदार्थ ही सत्य हैं । उनका परिज्ञान ही क्रियावाद में हेतु है । अन्य मतवादियों द्वारा स्वीकृत पदार्थों का परिज्ञान क्रियावाद में हेतु नहीं है।
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