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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् जे कोहणे होइ जगभासी, विओसियं जे उ उदीरएजा । अंधे वसे दंडपहं गहाय, अवि ओसिए धासतिपावकम्मी ॥५॥ छाया - यः क्रोधनो भवति, जगदर्थभाषी व्यवसितंयस्तूदीरयेत् ।
__ अन्ध इवासौ दण्डपथं गृहीत्वाऽव्यवसितो धृष्यतेपापकर्मा ॥ अनुवाद - जो पुरुष क्रोधन-क्रोधपूर्ण होता है-क्रोध करता है, दूसरों के दोषों को बखानता है, शांत हुए संघर्ष को फिर जागरित करता है-जगाता है, वह पाप कर्मकारी है । सदा संघर्ष-कलह आदि में ग्रस्त रहता है । दण्डपथ-सकड़े या छोटे मार्ग में जाते हुए अंधे की तरह धर्षित होता है-कष्ट पाता है ।
टीका - यो ह्यविदित कषाय विपाकः प्रकृत्यैव क्रोधनो भवति तथा 'जगदर्थभाषी' यश्च भवति, जगत्यर्था जगदर्था ये यथा व्यवस्थिताः पदार्थास्तानाभाषितुं शीलमस्य जगदर्थभासी तद्यथा-ब्राह्मण डोडमिति ब्रूयात्तथा वणिजं किराटमिति शुद्रमाभीरमिति श्वपाकंचाण्डालमित्यादि तथा काणं काणमिति तथा खजं कुब्जं वउ भमित्त्यादि तथा कुष्ठिनं क्षयिणमित्यादि यो यस्य दोषस्तं तेन खरपरुषं ब्रूयात् यः स जगदर्थभाषी, यदिवा जयार्थभाषी यथैवाऽऽत्मनो जयो भवति तथैवाविद्यमानमप्यर्थं भाषते तच्छीलश्च-येन केनचित्प्रकारेणासदर्थभाषणेनाप्यात्मनो जयमिच्छतीत्यर्थः । 'विओसियं' त्ति विविधमवसितं-पर्यवसितमुपशांतं द्वन्द्व-कलहं यः पुनरप्युदारयेत्, एतदुक्तं भवतिकलहकारिभिमिथ्यादुष्कृतादिना परस्परं क्षामितेऽपि तत्तद् ब्रूयाद्येन पुनरपितेषांक्रोधोदयो भवति।साम्प्रतमेतद्विपाकं दर्शयति-यथा ह्यन्धः-चक्षुर्विकलो 'दण्डपथ' गोदण्डमार्ग (लघुमार्ग) प्रमुखोज्ज्वलं 'गृहीत्वा' आश्रित्य व्रजन् सम्यगकोविदतया धृष्यते'कण्टकश्वापदादिभिः पीड्यते,एवमसावपि केवलंलिङ्गधार्यनुपशान्तक्रोधःकर्कशभाष्यधि करणोद्दीपकः, तथा 'अविओसिए' त्ति अनुपशान्तद्वन्द्वः पापम्-अनार्यं कर्म-अनुष्ठानं यस्यासौ पापकर्माधष्यते चतुर्गतिके संसारे यातनास्थानगतः पौनःपुन्येन पीडयत इति ॥५॥
टीकार्थ - जो पुरुष कषायों के विपाक-परिणाम का वेत्ता नहीं है, जो प्रकृति से ही क्रोधी है, जो जगत में जैसा है उसे वैसे ही खुले शब्दों-अप्रिय शब्दों में कहता है । जैसे ब्राह्मण को डोड, बनिये को किराट, शुद्र को आभीर, श्वपाक को चाण्डाल, काने को काना, खज-लंगड़े को लंगड़ा, कुब्ज को कुब्ज, बधिर को बधिर, कोढी को कोढी, क्षयी को क्षयी-इस प्रकार जिसका दोष-हीनत्व है उसे खर परुष-तीखे कठोर शब्दों में कहता है । वह यहाँ जगदर्थभाषी कहा गया है अथवा जैसा कहने से अपनी विजय होती है, वैसा न होते हुए भी-मिथ्याभाषी जो कहता है, वैसा जयार्थभाषी भी इसका अभिप्राय है । इसका तात्पर्य यह है कि वह जिस किसी प्रकार से-असद भाषण द्वारा भी अपनी जय चाहता है जो सर्वथा उपशांत-द्वन्द्व या कलह को पुनः उदीर्ण करता है-उत्पन्न करता है जैसे आपस में झगड़ने वाले 'मिच्छामिदुक्कडं' कहकर परस्पर क्षामित हो जाते हैं-एक दूसरे को क्षमा प्रदान कर शांत हो जाते हैं तो भी जो ऐसी बातें कहता हैं जिनसे उनके क्रोध आदि पुनः भड़क जाये । उस पुरुष के कर्म विपाक का-फल का दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं-जैसे एक चक्षुर्विकल-नैत्रहीन पुरुष छोटी पगडंडी से जाता हुआ मार्ग को भली भांति न जानने के कारण झाड़ झंखाड़ तथा वन के जन्तुओं आदि से उत्पीडित-क्लेशान्वित होता है, उसी तरह जो केवल साधु के लिंगवेश को धारण करता है, जिसने क्रोध को उपशांत नहीं किया है, जो कर्कश भाषी है तथा कलह आदि का उद्दीपक है, वह पाप कर्मा-पापाचारी पुरुष चतुर्गतिमय संसार में यातनास्थानों को-नरकादि दुःखों को प्राप्त होता है, पुनः पुनः पीड़ित होता है ।
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