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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् साध्य के साधर्म्य-समानता अथवा वैधर्म्य-असमानता को लेते हुए दृष्टान्त देना उदाहरण है, जैसे घट, यह साधर्म्य उदाहरण है । वैधर्म्य मूलक उदाहरण यह है-जैसे जो अनित्य नहीं होता वह उत्पत्ति मान-उत्पत्तियुक्त भी नहीं होता जैसे आकाश । यह तथा-वैसा है, उस प्रकार का है अथवा वैसा नहीं है, उस प्रकार का नहीं है यों पक्ष में धर्म का उपसंहार करना-सन्निहित करना उपनय है । जैसे शब्द अनित्य है क्योंकि उसमें कृतकत्व हैवह किसी द्वारा कृत-किया हुआ है । जैसे घट, उसी की ज्यों यह भी है अथवा अनित्यत्व का अभाव होने पर-अनित्य न होने पर कृतकृत्व भी नहीं होता, जो अनित्य नहीं है, नित्य है, वह किसी के द्वारा बनाया हआ नहीं होता, जैसे आकाश । शब्द ऐसा आकाश जैसा नहीं है । प्रतिज्ञा तथा हेत का पुनर्वचन-उन्हें फिर दं निगमन कहा जाता है जैसे-वैसा होने के कारण-कृतक होने के कारण शब्द अनित्य है । ये पांच अवयव यदि केवल शब्द मात्र है. तो पौद्गलिक है तथा अजीव के ग्रहण से पुद्गलों का ग्रहण हो जाता है, वे अजीव के अन्तर्गत आ जाते हैं इसलिये उनका पृथक् पदार्थ के रूप में उपादान-स्वीकरण न्यायसंगत नहीं है । यदि तज्जनितशब्द जनितज्ञान को पांच अवयव कहा जाए तो वह-ज्ञान जीव का गुण है, अत: जीव के ग्रहण से उसका
उपादान-ग्रहण हो जाता है । यदि ज्ञान विशेष की पदार्थता मानी जाय-ज्ञान के भिन्न भिन्न भेदों या रूपों को पृथक् पृथक् पदार्थ माना जाय तब पदार्थों का बाहुल्य होगा क्योंकि ज्ञान के अनेक प्रकार हैं। संशय होने के अनन्तर किसी पदार्थ के होने की प्रतीति-पर्यालोचना तर्क कहा जाता है, जैसे-यहां स्थाणुढूँठ या पुरुष होना चाहिये। तर्क भी एक विशेष प्रकार का ज्ञान ही है । ज्ञान ज्ञाता से अभिन्न होता है । अतः उसके भेदों की पृथक् पदार्थों के रूप में परिकल्पना करना, विद्वत् सम्मत नहीं है । संशय और तर्क का उत्तरकालवर्तीउनके पश्चात् होने वाला निश्चयात्मक ज्ञान निर्णय कहा जाता है । यह भी पहले की ज्यों ज्ञान से अतिरिक्त या भिन्न नहीं है । यह निश्चयात्मक है । इसलिये प्रत्यक्षादि प्रमाणों में इसका अंतरभाव हो जाता है । इसको पृथक् पदार्थ के रूप में निर्देश करना न्यायसंगत नहीं है । कथाओं के तीन भेद हैं-वाद, जल्प एवं वितण्डा। प्रमाण तथा तर्क द्वारा जहां अपने पक्ष को सिद्ध किया जाता है तथा प्रतिवादी के पक्ष को निरस्त किया जाता है, जो सिद्धान्त से अविरुद्ध-अप्रतिकूल या अनुकूल होता है, पांच अवयवों से उपपन्न होता है, पक्ष और प्रतिपक्ष को परिगृहीत करता है उसे वाद कहा जाता है । वह तत्त्व ज्ञान के हेतु-तात्त्विक विचार मंथन एवं निर्णय का लक्ष्य लिये शिष्य तथा आचार्य के मध्य होता है; यदि विजिगीषा-प्रतिवादी को जीतने की इच्छा से छल जाति तथा निग्रहस्थान द्वारा अपने पक्ष के साधन तथा पर पक्ष के निरसन-खण्डन सहित होता है तो वह जल्प कहलाता है। वह यदि प्रतिपक्ष की स्थापना से रहित होता है तो वितण्डा कहा जाता है । इस पर जैनों का कथन हैइन तीन कथाओं के भेद निष्पन्न-सिद्ध ही नहीं होते, क्योंकि तत्त्व चिंतन के प्रसंग में तत्त्व का निर्णय करने हेतु वाद ही किया जाना चाहिये । छल, जल्प आदि द्वारा अवगम-निश्चय नहीं होता, वे तो परवञ्चना हेतुदूसरों को ठगने हेतु प्रयोग में लिये जाते हैं, उनसे तत्वावगति-तत्त्वबोध नहीं होता । यदि भेद हो तो भी इनकी पदार्थता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि जो वास्तव में परमार्थ रूप में वस्तु है, उसी को तत्त्वत: वस्तु स्वीकार करना युक्तियुक्त है । वाद तो मनुष्य की इच्छा के वशगत है, अत: वे अनियत है । उनकी पदार्थता असिद्ध है । वाद पुरुष की इच्छा के अनुविधायी है-इच्छानुसार होते हैं । कुक्कुट-मुर्गे तथा लावक-लवे पक्षियों के बीच भी पक्ष और प्रतिपक्ष को लेकर वह होता है, फिर तो उसे भी पदार्थ के रूप में स्वीकार करना चाहिये जो आपको अभीष्ट नहीं है। . न्यायदर्शन में असिद्ध, अनेकान्तिक और विरुद्ध ये तीन हेत्वाभास माने गये हैं । जो हेतु के सदृश आभासित होते हैं, लगते हैं उन्हें हेत्वाभास कहा जाता है । यहां जैन दर्शन का यह चिन्तन है
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