Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

Previous | Next

Page 562
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् उपमान के संबंध में न्याय दर्शन में कहा जाता है-प्रसिद्ध पदार्थ की समानता से साध्य-अप्रसिद्ध पदार्थ का साधन करना-उसे सिद्ध करना उपमान प्रमाण कहा जाता है । यथा जैसी गाय होती है वैसा ही गवयरोज होता है। संज्ञा के साथ संज्ञी-संज्ञा द्वारा सचित पदार्थ के संबंध की प्रतिपत्ति-बोध होना इस प्रमाण का अर्थ-फल या प्रयोजन है किंतु उपमान को पृथक प्रमाण के रूप में स्वीकृत करना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि यहा भी अन्यथा अनुपपत्ति से ही यह सिद्ध हो जाता है-संज्ञा व संज्ञी के संबंध का ज्ञान हो जाता है । अत: यहाँ अनुमान का भी लक्षण घटित होता है । अनुमान में ही इसका अन्तर्भाव-समावेश हो जाता है । इसलिये उपमान पृथक प्रमाण के रूप में उत्पन्न नहीं होता-सिद्ध नहीं होता । यदि कहा जाय कि उपमान के संदर्भ में अनुपपत्ति घटित नहीं होती तब तो व्यभिचार-दोष आने के कारण उपमान की अप्रामाणिकता स्पष्ट है । इसी प्रकार शाब्द-आगम भी सब प्रमाण नहीं है किन्तु जो आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत हैं वे ही-उन्हीं आगमों का प्रामाण्य है-प्रामाणिकता है । अर्हन्-सर्वज्ञाता, तीर्थंकर ही आप्त पुरुष हैं । उनसे भिन्न अन्य किसी को आप्त मानना युक्तिसंगत नहीं है । यह अन्यत्र बतलाया जा चुका है। यह समस्त प्रमाण आत्मा के ज्ञान रूप है । ज्ञान आत्मा का गुण है । अतः उसे आत्मा से भिन्न पदार्थ मानना युक्तियुक्त नहीं है । वैसा मानने पर रूप, रस आदि गुणों को भी तत्तद् गुणवान पदार्थों से पृथक् पदार्थ मानना होगा। यदि कहा जाय रूप, रस आदि इंद्रियों के अर्थ हैं । अत: इनको प्रमेयों के रूप में भिन्न पदार्थ स्वीकार किया गया है, ठीक है आप स्वीकार कर सकते हैं किंतु ऐसा करना युक्ति संगत नहीं है क्योंकि द्रव्य से पृथक् उनका अस्तित्व नहीं है । अतः द्रव्य के ग्रहण से वे भी गृहित हो जाते हैं, ऐसा सिद्ध है । अतः उनका पृथक् पदार्थों के रूप में स्वीकार करना उपयुक्त नहीं है । इसी प्रकार न्याय दर्शन में आत्मा, शरीर, इन्द्रियार्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख एवं अपवर्ग-इन्हें प्रमेय कहा गया है । इनमें आत्मा को सर्वदृष्टा, सर्व भोक्ता माना गया है, उसे इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख तथा ज्ञान द्वारा अनुमेय बतलाया गया है । उसे हमने जैनों ने भी जीव पदार्थ के रूप में गहीत किया है। शरीर उस आत्मा का भोगायतन है तथा इंद्रियां भी भोगायतन है । इंद्रियों के अर्थ विषय उसके भोग्य-भोगे जाने के योग्य हैं । यह शरीर आदि भी हम जैनों द्वारा जीवाजीव के रूप में स्वीकार किये गये हैं । उपयोग को बुद्धि कहा जाता है । वह ज्ञान का एक भेद है । अतः वह जीव का-आत्मा का गुण है । जीव के ग्रहण करने से यह भी गृहीत हो जाता है । समस्त पदार्थों को जो गृहीत करता है वह अन्त:करण है । उसे मन कहा जाता है । न्याय दर्शन के अनुसार युगपत-एक साथ समस्त इंद्रियों के ज्ञान अनुत्पन्न है । मन द्वारा उनका संकलनात्मक ज्ञान रहता है-अधिगत होता है । जैन दृष्टि से वह द्रव्य मन है तथा पौद्गलिक-पुद्गलमय है । जो अजीव के ग्रहण से गृहीत हो जाता है-अजीव के अन्तर्गत आ जाता है। भाव मन तो आत्मा का गुण है । वह जीव के ग्रहण से गृहीत हो जाता है । आत्मा के सुखदुःखात्मक संवेदन की निष्पत्ति का कारण प्रवृत्ति है । न्याय दर्शन में इसे आत्मा से पृथक् पदार्थ माना गया है जो युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि आत्मेच्छा-आत्मा की अभिलाषा या वाञ्छा को प्रवृत्ति कहा गया है । इसलिये वह आत्मा का ही गुण है । आत्मा के अभिप्राय का रूप लिये होने के कारण वह एक प्रकार से ज्ञान विशेष ही है । जो आत्मा को दूषित-विकृत करता है, उसे दाप कर जाता है । जैसे इस आत्मा का यह शरीर अपूर्व नहीं है, पहले से चला आ रहा है क्योंकि यह अनादि हैं यह अन्तिम भी नहीं हैं, क्योंकि संतति-जन्म मरण के प्रवाह की दृष्टि से यह अनन्त है । इस शरीर को अपर्व तथा शांत मानने का भी अध्यवसाय दोष है। अथवा राग द्वेष तथा मोह आदि दोष कहे जाते हैं, ये दोष भी जीव का विशिष्ट अभिप्राय है । इसलिये यह जीव में ही अन्तर्भूतसमाविष्ट हो जाता है, अतः इसे पृथक् पदार्थ नहीं कहा जा सकता । परलोक का सद्भाव-अस्तित्त्व प्रेत्यभाव 534

Loading...

Page Navigation
1 ... 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658