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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
यहाँ अनागति का अर्थ सिद्धि है । वह अशेष- समग्र कर्मों के च्युत क्षीण होने से निष्पन्न होती है। वह लोक के अग्रभाग में आकाश के एक विशेष स्थान के रूप में है । वह आदि सहित है तथा अंतरहित है । द्रव्यार्थिक नय के अनुसार समस्त पदार्थ शाश्वत या नित्य है तथा पर्यायार्थिक नय के अनुसार सब अशाश्वत - अनित्य तथा प्रतिक्षण विनश्वर है, जो यह जानता है। यहां प्रयुक्त 'च' शब्द से जो समग्र पदार्थों को नित्य के एवं अनित्य तथा उभयरूप जानता है। आगम में कहा गया है - नैरयिक- नारक जीव द्रव्यार्थिक नय अनुसार नित्य है तथा पर्यायार्थिक नय के अनुसार अनित्य है। इसी प्रकार अन्य तिर्यञ्च आदि को भी जानना चाहिये । अथवा निर्वाण को शाश्वत कहा जाता है तथा संसार को अशाश्वत कहा जाता है क्योंकि तद्गत- सांसारिक प्राणी अपने द्वारा कृत कर्मों के परिणामस्वरूप इधर उधर जाते हैं । जो जाति को - नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवों की उत्पत्ति को जानता है तथा आयुष्य के क्षय से जनित मृत्यु जन कहा जाता है । उनके सत्वों के, जीवों के उपपात को जानता है है । यहां जन्म का चिन्तन करते समय जीवों के उत्पत्ति स्थान योनि का कथन करना चाहिये । वह योनि सचित्त, अचित्त, मिश्र एवं शीत, उष्ण, मिश्र तथा संवृत, विवृत, मिश्र होती है । इस प्रकार वह सत्ताईस भेदों में विभक्त है। तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों की मृत्यु होती है । ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों का च्यवन होता है । तथा भवनपति, व्यंतर तथा नारकों का उद्वर्तन होता है
जानता है । जो उत्पन्न होते हैं उन्हें । उपपात नारकों और देवों में होता
॥२०॥
सत्व-प्राणी अपने द्वारा कृत कर्मों का फल भोगते हैं। दुष्कृत कर्मकारी- पापीजन नीचे नरकादि स्थानों में जन्म, वृद्धत्व, मृत्यु, रुग्णता एवं शोक से जनित विविध प्रकार की दैहिक पीड़ा को भोगते हैं, जो यह जानता है । 'च' शब्द से संकेतिक पीड़ा के अभाव - नाश के उपाय को जानता है । तात्पर्य यह है कि सर्वार्थ सिद्ध देवलोक से लेकर सातवीं नरक तक जितने प्राणधारी हैं वे सब कर्मों से युक्त हैं वहाँ भी जो सबसे अधिक भारी कर्मयुक्त है, वे अप्रतिष्ठान नामक नरक में जाते हैं जो यह जानता है । अष्टविध कर्म आश्रवित होते हैं- आत्मा में आते हैं, संश्लिष्ट होते उसे आश्रव कहा जाता है । वह प्राणातिपात - हिंसा रूप हैं अथवा राग द्वेषात्मक है या मिथ्यादर्शन मूलक है, उसे जो जानता है तथा आश्रवों के निरोध- समस्त योगों-मानसिक, वाचक एवं कायिक प्रवृत्तियों के अवरोध रूप संवर को जानता है । 'च' शब्द से संकेतित पुण्य पाप को जानता है। असातावेदनीय उदय के परिणामस्वरूप निष्पन्न दुःख को एवं उसके कारण को जानता है तथा उसके विपर्ययभूत सुख को जानता है । तप द्वारा निर्जरा होती है यह जानता है । कहने का अभिप्राय यह है कि जो कर्म बंध के हेतुओं को जानता है तथा बंध के विपरीत कर्मों के क्षय के हेतुओं को समान रूप से जानता है । कहा है - जिस प्रकार जितने पदार्थ संसार के आवेश प्राप्त होने के कारण है - हेतु हैं, उतने ही उनसे विपरीत - मोक्ष प्राप्त करने के भी कारण हैं इत्यादि जो जानता है वही परमार्थतः - यथावत् रूप में आख्यात कर सकता है। किसे आख्यात कर सकता हैं ? इस प्रश्न के समाधान में कहते हैं कि क्रियावाद को आख्यात कर सकता है । जीव का अस्तित्व है, पुण्य, पाप तथा पूर्वाचरित कर्मफल का अस्तित्व है, इनका प्रतिपादन क्रियावाद कहा जाता है । उक्त दो गाथाओं द्वारा जीव, अजीव, आश्रव, संवर, बंध, पुण्य, पाप, निर्जरा व मोक्ष-यें नौ पदार्थ उपात्त है - गृहीत हैं । जो आत्मा को जानता है-यो कहने से जीव पदार्थ प्रतिपादित हुआ है। लोक का कथन कर अजीव पदार्थ का प्रतिपादन किया है तथा गति, आगति तथा शाश्वत इत्यादि का कथन कर इन्हीं का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। आश्रव और संवर अपने अपने स्वरूप के साथ कहे गये हैं । तथा दुःख का नाम लेकर बंध, पुण्य तथा पाप गृहीत कहे गये हैं क्योंकि दुःख के साथ इनका अविनाभावित्व
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