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श्री समवसरणाध्ययनं अविनाभाव सम्बन्ध है, इनके बिना दुःख उत्पन्न नहीं होता । निर्जरा का उसके अपने नाम के साथ उल्लेख हुआ है तथा उसके फलभूत मोक्ष का भी उपादान-ग्रहण किया गया है । इस प्रकार इतने ही पदार्थ मोक्ष के अभ्युपगम-प्राप्ति में उपयोगी हैं । अतः इनका अस्तित्व मानने से ही क्रियावाद अभ्युपगत्-स्वीकृत होता है। जो इन पदार्थों को जानता है, स्वीकार करता है वही वास्तव में क्रियावाद का वेत्ता है । कहते हैं कि अन्य दर्शनों में प्रतिपादित पदार्थों को जो जानता है उसे आप सम्यक्वादी क्यों नहीं स्वीकार करते हैं ? इसके उत्तर में बताते हैं कि न्याय दर्शन में प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति तथा निग्रह स्थान-ये सोलह पदार्थ स्वीकार हैं । इनमें हेय-त्यागने योग्य पदार्थों से निवृत्ति-हटना तथा उपादेय पदार्थों में प्रवृत्ति-प्रवृत्त होना इनके कारण जो पदार्थों के स्वरूप का निश्चय कराता है उसे प्रमाण कहा जाता है । जिसके द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं-सम्यक् रूप में परखे जाते और जाने जाते हैं वह प्रमाण है । प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द-प्रमाण के चार भेद हैं । जो ज्ञान इन्द्रिय तथा पदार्थ के सन्निकट से निष्पन्न होता है,शब्दद्वारा व्यपदेश्य-अकथन योग्य तथा अव्यभिचारी-दोषरहित और व्यवसायात्मकनिश्चयात्मक होता है वह प्रत्यक्ष है । इसका अभिप्राय यह है कि जो इंद्रिय तथा पदार्थ के सम्बन्ध से निष्पन्न होता है किंतु अभिव्यक्त नहीं होता । जो सुख आदि रूप नहीं है वरन् ज्ञान है । वह शब्द द्वारा व्यपदिष्ट नहीं होता क्योंकि शब्द द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है वही व्यपदेश्य है । दो चन्द्रमाओं के ज्ञान की तरह जो व्यभिचार युक्त-दोष युक्त या भ्रम युक्त नहीं है, जो निश्चयात्मक है, न्याय दर्शन में उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है किन्तु प्रत्यक्ष का यह स्वरूप युक्तियुक्त नहीं है । क्योंकि यहां अर्थ को ग्रहण करने-स्वायत्त करने में आत्मासाक्षात-बिना किसी अन्य की अपेक्षा लिये स्वयं व्याप्त होती है-इन्द्रियों द्वारा वैसा नहीं करती, आत्मा का वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है । अवधिज्ञान मनःपर्याय ज्ञान तथा केवल ज्ञान प्रत्यक्ष हैं किन्तु अपरउपधि-इंद्रिय द्वारा होने वाला ज्ञान जिसे न्याय दर्शन प्रत्यक्ष कहता है वह अनुमान आदि के सदश परोक्ष है. प्रत्यक्ष नहीं है. औपचारिक
में उसे प्रत्यक्ष कहा जा सकता है किन्तु जहा तत्त्व चिन्तन का प्रसंग हो वहां औपचारिकता व्याप्त नहीं होती है ।
न्याय दर्शन के अनुसार पूर्ववत्, शेषवत् तथा सामान्यतोदृष्ट-ये अनुमान के तीन भेद हैं । कार्य से जहां कारण का अनुमान किया जाता है उसे पूर्ववत् कहा जाता है । कार्य से जहां कारण का अनुमान होता जाता है उसे शेषवत् कहा जाता है । आम के एक पेड़ पर मंजरियां लगी हुई देखकर यह अनुमान किया जाता है कि संसार में सभी आमों के पेड़ों में मंजरियां लग गई है । इस प्रकार का अनुमान करना सामान्यतोदृष्ट कहा जाता है । अथवा गतिपूर्वका देवदत्त आदि व्यक्ति को एक स्थान से अन्य स्थान में देखकर, सूर्य में गति का अनुमान करना सामान्यतोदृष्ट कहा जाता है किंतु न्याय शास्त्र में प्रतिपादित यह सिद्धान्त अयुक्तियुक्त हैं क्योंकि अन्यथा अनुपपत्ति ही-अन्य प्रकार से उत्पन्न न होना ही अनुमिति का हेतु है । कारण आदि नहीं हैं क्योंकि अन्यथा अनुपपत्ति के बिना कारण का कार्य के प्रति व्यभिचार-दोष दृष्टिगत होता है । किन्तु जहां अन्यथानुपपत्ति है वहां कार्य कारण भाव विद्यमान न होने के बावजूद गम्यगमक भाव दृष्टिगोचर होता है । जैसे कहा जाता है शकट, तारा (मृगशिर) नक्षत्र उदित होगा क्योंकि कृतिका नक्षत्र का दर्शन होता है-वह दिखाई देता है । कहा गया है जहां अन्यथा अनुपपन्नत्व-अन्यथानुपपनत्व है. वहां पूर्ववत शेषवत तथा सामान्यतोदष्ट से क्या प्रयोजन है अर्थात् इनका कोई प्रयोजन नहीं है जहां अन्यथानुपपत्ति नहीं वहां भी इन तीनों से क्या सधेगा । ऐसा भी है जब न्याय शास्त्र में स्वीकृत प्रत्यक्ष प्रमाण की कोटि में आता ही नहीं तो तत्पूर्वक होने वाला अनुमान का भी अप्रामाण्य है-वह भी प्रमाण नहीं है।
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