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श्री समवसरणाध्ययनं है, यह भी अपने साधनों के साथ जीव एवं अजीव के ग्रहण से उपात्त है । सुख तथा दुःख भोगना फल कहा
यह भी जीव का ही गण है, अतः जीव के अन्तर्गत आ जाता है। इसको एक पृथक पदार्थ के रूप में नहीं बताना चाहिये । दुःख विविध प्रकार की बाधाओं का रूप लिये हुए है, अतः वह भी फल से अतिरिक्त-भिन्न नहीं है । जो जन्म और मत्य के प्रबंध-परम्परा का विच्छेदन तथा समग्र द:खों का विनाशक है उसे मोक्ष कहा जाता है । हम जैनों द्वारा वह इसी रूप में उपात्त-स्वीकृत है । यह क्या है ? इस प्रकार का अनवधारणात्मक-अनिश्चयात्मक ज्ञान संशय कहा जाता है । यह भी निर्णय ज्ञान की ज्यों आत्मा का ही गुण है । जिससे प्रयुक्त होकर-जिस अर्थ के निमित्त मनुष्य प्रवृत्त होता है उसे प्रयोजन कहते हैं, यह भी इच्छा का ही एक विशेष रूप है, अतः आत्मा का ही गुण है । जिस अर्थ में विप्रतिपत्ति-वादी एवं प्रतिवादी का कोई मतान्तर नहीं होता उसे दृष्टान्त कहा जाता है, वह भी जीव तथा अजीव में से अन्यत्तर है-कोई एक है, किसी एक से संबद्ध है, अत: उसकी पृथक् पदार्थता युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि ऐसा मानने से अतिप्रसंगअप्रासांगिकता होगी? न्यायदर्शन में आगे चलकर अवयवों के ग्रहण द्वारा उसे गृहीत किया गया है । सिद्धांत के चार भेद हैं-जैसे (१) अपने शास्त्र का वह अर्थ जो अन्य सभी शास्त्रों से अविरुद्ध-अप्रतिकूल या संगत हो, वह सर्वतन्त्र सिद्धान्त कहलाता है । उदाहरणार्थ-स्पर्शन आदि इंद्रियां हैं तथा स्पर्श आदि इंद्रियों के विषय है । प्रमाणों द्वारा प्रमेय का ग्रहण परिज्ञान होता है, ये सर्वतन्त्र सिद्धान्त है । (२) जो सिद्धान्त किसी एक शास्त्र में माना जाता है किन्तु अन्य शास्त्रों में नहीं माना जाता वह प्रतितन्त्र सिद्धान्त कहा जाता है जैसे सांख्य दर्शन में विश्वास करने वाले असत् का आत्म लाभ-असत् पदार्थ की सत्ता और सत् पदार्थ का सर्वथा विनाश नहीं मानते । कहा गया है, असत् का-असत् पदार्थ का भाव सत्ता नहीं होती और सत् पदार्थ का अभावअसत्ता नहीं होती। यह सिद्धान्त अन्य दर्शनों द्वारा स्वीकृत नहीं है । (३) जिसके सिद्ध होने पर अन्य पदार्थ प्रासांगिक रूप में सिद्ध हो जाते हैं, उसे अधिकरण सिद्धान्त कहा जाता है । जैसे इंद्रिय व्यतिरिक्त-इंद्रियों से भिन्न ज्ञाता-जानने वाली आत्मा है क्योंकि दर्शन से तथा स्पर्श से एक अर्थ गृहीत होता है वहां प्रासांगिक रूप में अनेक अर्थ गृहीत हो जाते हैं जैसे इन्द्रियां भिन्नभिन्न है, वे नियत-अपने अपने निश्चित विषय को गृहीत करती है । अपने अपने विषयों का ग्रहण उनके अस्तित्व की पहचान है, वे ज्ञाता-आत्मा के ज्ञान की साधन
गणों से व्यक्ति भिन्न उन गणों का अधिकरण-आश्रय द्रव्य है। चेतना अनियत विषयक हैउसके कोई नियत विषय नहीं है, वह सब विषयों में व्याप्त है । यहां पहले अर्थ के सिद्ध हो जाने पर ये सब अर्थ अपने आप सिद्ध हो जाते हैं क्योंकि उनके बिना पहले का अर्थ संभव ही नहीं होता, अतः यह अधिकरण सिद्धान्त है । (४) अपरीक्षित-परीक्षा किये बिना ही किसी अर्थ को अभ्युपगत कर-स्वीकार कर उसकी विशेषताओं का परीक्षण करना अभ्युपगम सिद्धान्त है जैसे-शब्द के विचार के प्रसंग में कोई कहता है-शब्द द्रव्य भले ही हो पर क्या वह नित्य है या अनित्य है ? इस रूप में विचार करना अभ्युपगम सिद्धान्त है । न्याय दर्शन में स्वीकृत ये चारों ही सिद्धान्त ज्ञान विशेष से कुछ भिन्न नहीं है-ज्ञान के ही विशेष रूप है, इसलिये इन्हें पृथक् स्वीकार करना अयुक्तियुक्त है ।
अब अवयवों का वर्णन किया जाता है । प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन-ये पांच अवयव है । साध्य का निर्देश-साध्य अर्थ को बताना प्रतिज्ञा है । जैसे शब्द नित्य है यह कहना तथा शब्द अनित्य है, यह कहना प्रतिज्ञा है । प्रतिज्ञा में निहित अर्थ को जो प्रति ज्ञात कराता है-स्वायत्त कराता है, उसे हेतु कहा जाता है जैसे शब्द अनित्य है क्योंकि उत्पन्न होना उसका स्वभाव है, यहां शब्द की उत्पत्तिधर्मकत्त्व हेतु है।
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