Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 550
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् त्यादि, ते चातीतानागत वर्तमानज्ञानिन: प्रत्यक्षजानिनश्चतुर्दशपूर्वविदो वा परोक्ष ज्ञानिनः' अन्येषां 'संसारोत्तितीर्षूणां भव्यार्ना मोक्षं प्रति नेतारः सदुपदेशं वा प्रत्युपदेष्टारो भवन्ति, न च ते स्वयम्बुद्धत्वादन्येन नीयन्ते ( धवन्तः क्रिय) न्त इत्यनन्यनेयाः, हिताहितप्राप्तिपरिहारं प्रति नान्यस्तेषां नेता विद्यतइति भावः । ते च 'बुद्धाः 'स्वयंबुद्धास्तीर्थकरगणधरादयः, हुशब्दश्चशब्दार्थे विशेषणे वा तथा च प्रदर्शित एव, ते च भवान्तकराः संसारोपादानभूतस्य वा कर्मणोऽन्तकरा भवन्तीति ॥ १६ ॥ यावदद्यापि भवान्तं न कुर्वन्ति तावत्प्रतिषेध्यमंश दर्शयितुमाह टीकार्थ - जो महापुरुष लोभ से अतीत हैं वे किस प्रकार के होते हैं सूत्रकार यह प्रकट करते हैंवे वीतराग होते हैं अथवा अल्प कषाय-अतिन्यून कषाय युक्त होते हैं। वे पंचास्तिकायात्मक लोक के प्राणियों पूर्व जन्म के, वर्तमान के एवं भविष्य के सुखों एवं दुःखों को यथावस्थित रूप में-ज्यों के त्यों सत्य - सत्य जानते हैं । विभंग ज्ञानी की ज्यों विपरीत रूप में नहीं देखते। आगम में कहा है- भंते! मायायुक्त मिथ्या दृष्टि अणगार-गृह त्यागी पुरुष राजगृह नगर में अवस्थित होता हुआ, क्या वाराणसी नगरी के रूपों को मूर्त पदार्थों को जानता है या देखता है ? उत्तर में कहा जाता है कि देखता तो है किंतु कुछ विपर्यास के साथ देखता है इत्यादि । किन्तु अतीत, अनागत और वर्तमान के वेत्ता, प्रत्यक्ष ज्ञानी, केवल ज्ञानी तथा चतुर्दश पूर्वधर परोक्ष ज्ञानी संसार को पार करने के इच्छुक भव्य जीवों को मोक्ष की ओर ले जाते हैं । उन्हें सदुपदेश देते हैं । वे स्वयं बुद्ध होते हैं । इसलिये किसी अन्य द्वारा उन्हें तत्त्वावबोध नहीं कराया जाता । अर्थात् अन्य किसी के द्वारा उन्हें मार्गदर्शन नहीं दिया जाता । हित की प्राप्ति और अहित की निवृत्ति के संदर्भ में कोई दूसरा उनका नेता-मार्गदर्शक नहीं होता । वे स्वयं बुद्ध तीर्थंकर, गणधर आदि भव का संसार के उपादान कारण रूप कर्मों का अन्त - नाश करने वाले होते हैं। यहां 'हु' शब्द 'च' शब्द के अर्थ में या विशेषण के अर्थ में आया है जो पहले बताया जा चुका है I जब तक वे महापुरुष भव का अंत नहीं करते मोक्ष प्राप्त नहीं करते तब तक वे उन्हें जो नहीं करना चाहिये, उसका दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार कहते हैं । ते व कुव्वंति ण कारवंति, भूताहिसंकाइ दुर्गुछमाणा । सया जता विप्पणमंति धीरा, विण्णत्ति (ण्णाय) धीरा य हवंतिएगे ॥१७॥ छाया - नैव कुर्वन्ति न कारयन्ति, भूताभिशङ्कया जुगुप्समानाः । सदायताः विप्रणमन्ति धीराः, विज्ञप्तिधीराश्च भवन्त्येके ॥ अनुवाद - प्राणियों की हिंसा से घृणा करने वाले तीर्थंकर एवं गणधर आदि महापुरुष न स्वयं हिंसा आदि करते हैं और न औरों द्वारा करवाते हैं। विज्ञप्ति धीर - प्रज्ञाशील एवं आत्म पराक्रमी - संयम पालन में समुद्यत वे असद् अनुष्ठान से निवृत्तरहतेहुए संयम का अनुशीलन करते हैं। जबकि अन्य दर्शनवादी मात्र ज्ञान से ही अपने आपको पराक्रमी सिद्ध करने का प्रदर्शन करते हैं, कर्म द्वारा नहीं । टीका – ‘ते’ प्रत्यक्षज्ञानिनः परोक्षज्ञानिनो वा विदितवेद्याः सावद्यमनुष्ठानं भूतोपमर्दाभिशङ्कया पापं कर्म जुगुप्समानाः सन्तो न स्वतः कुर्वन्ति, नाप्यन्येन कारयन्ति, कुर्वन्तमप्यपरं नानुमन्यन्ते । तथा स्वतो न मृषावादं जल्पन्ति नान्येन जल्पयन्ति नाप्यपरं जल्पन्तमनुजानन्ति एवमन्यान्यपि महाव्रतान्यायोज्यानीति । तदेवं 'सदा' सर्वकालं 522

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