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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
की सज्जा हेतु प्रयुक्त है । यह भव- गहन - संसार रूपी वन चौरासी लाख योनि परिमित है - इसमें चौरासी लाख योनियां हैं । तथा यहां यथासंभव संख्यात, असंख्यात और अनन्त कालिक स्थिति युक्त है । यह आस्तिकधर्म में श्रद्धावान जीवों द्वारा भी बड़ी कठिनाई से पार किया जा सकता है। फिर नास्तिकों की तो बात ही क्या ? सूत्रकार-गहन भवयुत संसार की पुनः विशेषता प्रगट करते हुए कहते हैं - इस संसार में जो सावद्य - पापयुक्त कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वे कुत्सित मार्ग में पतित हैं । असत् सिद्धान्तों को ग्रहण किये हुए हैं। भोग प्रधान अंगनाओं-नारियों द्वारा वशीकृत है । अथवा सांसारिक भोगों के आधीन होकर वे कभी भी सत् अनुष्ठान-उत्तम आचरण का पालन नहीं करते । वे सांसारिक भोग तथा अंगना रूपी पंक कीचड़ में ग्रस्त होते हुए आकाश आश्रित लोकों में देवलोकों में तथा पृथ्वी आश्रित लोकों में मनुष्य लोक, नारक लोक में अथवा स्थावर जंगमात्मक लोक में बार बार संचरण करते हैं जन्म लेते हैं और मरते हैं । अथवा लिंग मात्र वेश मात्र से प्रव्रज्या धारी - प्रव्रजित साधु होने से तथा विरति व्रत पालन न करने से एवं राग द्वेष युक्त होने के कारण अपने द्वारा कृत कर्मों के परिणामस्वरूप चतुर्दश रज्जु परिमित इस लोक में अनुसंचरण करते हैं- पुनः पुनः भटकते
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न कम्मुणा कम्म खवेंतिबाला, अकम्पुणा कम्म खति मेधाविणो लोभमयावतीता, संतोसिणो नो पकरेंति पावं ॥१५॥
छाया न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति बाला अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः । मेधाविनो लोभमयादतीताः संतोषिणो न प्रकुर्वन्ति पापम् ॥
अनुवाद बाल या अज्ञानी जीव अशुभ कर्मों द्वारा अपने पापों का क्षय नहीं कर सकते । धीरधैर्यशील पुरुष अकर्म द्वारा- अशुभ कर्मों के त्याग द्वारा पाप का निरोध तथा क्षपण करते हैं । मेधावी - प्रज्ञाशील पुरुष लोभ से अतीत होते हैं । वे संतोषयुक्त होते हैं । पाप कर्म नहीं करते ।
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टीका - किञ्चान्यत् - ते एवमसत्समवसरणाश्रिता मिथ्यात्वादिभिर्दोषैरभिभूताः सावद्येतरविशेषानभिज्ञा: सन्तः कर्मक्षपणार्थमभ्युद्यता निर्विवेकतया सावद्यमेव कर्म कुर्वते, न च 'कर्मणा' सावद्यारम्भेण 'कर्म' पापं ' क्षपयन्ति' व्यपनयन्ति, अज्ञानत्वाद्वा बाला इव बालास्त इति, यथा च कर्म क्षिप्यते तथा दर्शयति- 'अकर्मणा तु' आश्रवनिरोधेन तु अन्तशः शैलेश्यवस्थायां कर्म क्षपयन्ति धीराः' महासत्त्वा सद्वैद्या इव चिकित्सयाऽऽमयानिति । मेधा - प्रज्ञा सा विद्यते येषां ते मेधाविन:- हिताहितप्राप्तिपरिहाराभिज्ञा लोभमयं परिग्रहमेवातीताः परिग्रहातिक्रमाल्लोभातीतावीतरागा इत्यर्थः, 'सन्तोषिणः ' येन किनचित्सन्तुष्टा अवीतरागा अपीति, यदिवा यत एवातीतलोभा अतएव संतोषिण इति, त एवंभूता भगवन्तः 'पापम्' असदनुष्ठानापादितं कर्म न कुर्वन्ति' नाददति, क्वचित्पाठः, 'लोभभयादतीता' लोभश्च भयं च समाहारद्वन्द्वः, लोभाद्वा भयं तस्मादतीताः सन्तोषिण इति, न पुनरुक्ताशङ्का विधेयेति, अतो ( विधेयाऽत्र यतो ) लोभातीतत्वेन प्रतिषेधांशो दर्शितः, संतोषिण इत्यनेन च विध्यंश इति, यदिवा लोभातीतग्रहणेन समस्तलोभाभावः संतोषिण इत्येनेन तु सत्यप्यवीतरागत्वे नोत्कटलोभा इति लोभाभावं दर्शयन्नपरकषायेभ्यो लोभस्य प्राधान्यमाह, ये च लोभातीतास्तेऽवश्यं पापं न कुर्वन्ति इति स्थितम् ॥१५॥ टीकार्थ असत् दर्शन-गलत सिद्धान्तों पर आश्रित टिके हुए मिथ्यात्व आदि दोषों से अभिभूत सावद्य एवं निर्बंध कर्मों के भेद से अनभिज्ञ अज्ञानी प्राणी कर्मक्षय हेतु उद्यत होते हुए निर्विवेकता-विवेकशून्यता के
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