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____ श्री समवसरणाध्ययनं । कारण सावध कर्म ही करते हैं । सावद्य-आरंभ-प्रवृति के कारण वे अपने पापों का क्षय नहीं कर सकते हैं। अज्ञान के कारण वे बालक के समान हैं । जिस प्रकार कर्मों का क्षय होता हैं उसका दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं । अकर्म द्वारा-आश्रव के निरोध द्वारा अन्त में शैलेषी अवस्था प्राप्त कर वे धीर, महासत्व, महापुरुष जैसे उत्तम वैद्य चिकित्सा द्वारा रोगों को मिटाते हैं वैसे ही कर्मों का क्षय करते हैं । जिनमें मेधा-प्रज्ञा या बुद्धि होती है वे मेधावी कहे जाते हैं । वे हित-आत्मा के श्रेयस् की प्राप्ति तथा अहित-आत्मा के अश्रेयस् के परिहार-निवृत्ति से अभिज्ञ होते हैं-जानते हैं । लोभमय परिग्रह से अतीत होते हैं । वीतराग होते हैं । अथवा वीतराग न होने पर भी जो कुछ प्राप्त है उसमें परितुष्ट होते हैं । अथवा वे लोभ को लांघ चुके हैं । अतः संतोषयुक्त हैं । ऐसे महापुरुष, असत् अनुष्ठान-अशुभ आचरण से आपादित-निष्पन्न पापयुक्त कर्म नहीं करते । कहीं 'लोभभयादतीता:'-ऐसा पाठ प्राप्त होता है । यहां 'लोभस्य भयश्च-यह विग्रह होता है । समाहार में द्वन्द्व समास होता है । अत: यहां द्वन्द्व समास है । अथवा "लोभाद् भयं" ऐसा विग्रह भी संभावित है । इसका अभिप्राय यह है कि महापुरुष लोभ से अतीत होते हैं । वे संतोषी होते हैं । इस प्रकार अर्थ करने से पुनरुक्तत्ता की आशंका नहीं रहती क्योंकि लोभ के अतीत से-लोभ का उल्लंघन करना कहकर उसका प्रतिषेधानिषेध पक्ष प्रकट किया गया है तथा संतोषी कह कर उसका विध्यंश-विधिपक्ष उपस्थित किया गया है । अर्थात् लोभातीत के ग्रहण से यहां समग्र लोभों का अभाव बतलाया गया है तथा संतोषी कहकर वीतरागत्व के न होने पर भी उत्कट-लोभ का न होना प्रतिपादित किया गया है । सूत्रकार लोभ का अभाव निरूपित करते हुए अन्य कषायों से लोभ का प्राधान्य प्रकट करते हैं । इसका सार यह है कि जो पुरुष लोभातीत हो जाते हैं वे निसन्देह पाप नहीं करते ।
ते तीय उप्पन्नमणागयाइं, लोगस्स जाणंति तहागयाइं । णेतारो अन्नेसि अणन्नणेया, बुद्धा हुते अंतकडा भवंति ॥१६॥ छाया - तेऽतीतोत्पन्नानागतानि लोकस्स जानन्ति तथागतानि ।।
नेतारोऽन्येषामनन्यनेयाः, बुद्धाश्चतेऽन्तकरा भवन्ति ॥ अनुवाद - वे वीतराग-राग द्वेष विजेता महापुरुष प्राणियों के अतीत, वर्तमान और अनागत-तीनों कालों के वृतान्तों को यथावत् रूप में जानते हैं । वे अन्य जीवों के नेता-मार्गदर्शक हैं किन्तु उनका कोई नेता नहीं है । वे स्वयं बुद्ध हैं । वे बुद्ध-स्वयंबुद्ध, संसार के आवागमन का अंत करते हैं ।
टीका - ये च लोभातीतास्ते किम्भूता भवन्ति इत्याह-'ते' वीतरागा अल्पकषाया वा 'लोकस्स' पञ्चास्तिकायात्मकस्य प्राणिलोकस्य वाऽतीतानि-अन्य जन्माचरितानि उत्पन्नानि-वर्तमानावस्थायीनि अनागतानिच भवान्तरभावीनि सुखदु:खादीनि 'तथागतानि' यथैव स्थितानि तथैव अवितथं जानन्ति, न विभङ्गज्ञानिन इव विपरीतं पश्यन्ति, यथाह्यागमः
"अणगारे णं भंते ! माई मिच्छादिट्ठी रायगिहे णयरे समोहए वाणारसीए नयरीए रूवाई जाणइ पासइ ?, जाव से से दंसणे विवज्जासे भवती"
छाया - अनगारो भदन्त ! मायी मिथ्यादृष्टिः राजगृहे नगरे समवहतः वाराणस्यां नगर्या रूपाणि जानाति पश्यति ? यावत्स तस्य दर्शनविपर्यासोभवति ।
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