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श्री समवसरणाध्ययनं का ग्रहण होता है । यहां प्रयुक्त सुर शब्द से सौधर्म आदि वैमानिक देव गृहीत हैं। 'च' शब्द से सूरज आदि ज्योतिष्क देव लिये गये हैं । तथा गंधर्व शब्द से विद्याधर या व्यंतर विशेष का ग्रहण है । काय शब्द से पृथ्वीकाय आदि छहों काय लिये गये हैं।
सूत्रकार फिरएक अन्य प्रकार से जीवों का विभाजन करते हुए कहते हैं-जो आकाशगामी हैं, जिनमें आकाश में गमन की-उड़ने की लब्धिशक्ति है वे चार प्रकार के देव, विद्याधर, पक्षी और वायु हैं । पृथ्वी पर आश्रित जो पार्थिव, जलीय, तेजस, वानस्पतिक, द्वि-इन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय प्राणी हैं। वे सभी अपने द्वारा किये हुए कर्मों के अनुसार अनेक रूपों में अरहट घटिकाओं-रहट्ट की ज्यों जगत में पर्यटन करते हैं-भटकते हैं।
जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहि णं भवगहणं दमोक्खं । . जंसी विसन्ना विसयंगणाहिं, दुहओऽवि लोयं अणुसंचरंति ॥१४॥ छाया - यमाहुरोधं सलिलमपारगं, जानीहि भवगहनं दुर्मोक्षम् ।
यस्मिन् विषण्णाः विषयाङ्गनाभिर्दिधाऽपि लोकमनुसश्चरन्ति. ॥' अनुवाद - तीर्थंकर देव ने इस जगत को स्वयम्भूरमण समुद्र के समान अपार कहा है । अतः इसे गहन संसार को दुर्मोक्ष बड़ी कठिनता से छूटने योग्य समझो । सांसारिक भोगों और अंगनाओं में विषण्णविषम तथा आसक्त प्राणी इस संसार में पुनः पुनः स्थावर एवं जंगम योनियों में अनुसंचरण करते हैं-जाते रहते
टीका - किञ्चान्यत्-'यं' संसार सागरम् आहुः-उक्तवन्तस्तीर्थकरगणधरादयस्तद्विदः, कथमाहुः ?स्वयम्भुरमणसलिलौघवदपारं, यथा स्वयम्भूरमणसलिलौघो न केनचिज्जलचरेण स्थलचरेण वा लवयितुं शक्यते एवमयमपि संसारसागरः सम्यग्दर्शनमन्तरेण लवयितु न शक्यत इति दर्शयति-'जानीहि' अवगच्छ णमिति वाक्यालङ्कारे, भवगहनमिदं-चतुरशीतियोनिलक्षप्रमाणं यथासम्भवं सङ्घयेयासङ्घयेयानन्त स्थितिकं दुःखेन मुच्यत इति दुर्मोक्षंदुरुत्तरमस्तिवादिनामपि, किं पुनर्नास्तिकानाम् ?, पुनरपि भवगहनोपलक्षितं संसारमेव विशिनष्टि 'यत्र' यस्मिन् संसारे सावद्यकर्मानुष्ठायिनः कुमार्गपतिता असत्समवसरणग्राहिणो 'विषण्णा' अवसक्ता विषयप्रधाना अङ्गना विषयाङ्गनास्ताभिः, यदिवा विषयाश्चाङ्गनाश्च विषयाङ्गनास्ताभिर्वशीकृताःसर्वत्र सदनुष्ठानेऽवसीदन्ति,त एवं विषयाङ्गनादिके पङ्के विषण्णा 'द्विधाऽपि' आकाशाश्रितं पृथिव्याश्रितं च लोकं, यदिवा स्थावरजङ्गमलोकं 'अनुसंचरन्ति' गच्छन्ति, यदिवा-'द्विधाऽपि' इति लिङ्गमात्रप्रव्रज्ययाऽविरत्या (च) रागद्वेषाभ्यां वा लोकं-चतुर्दशरज्ज्वात्मकं स्वकृतकर्मप्रेरिता 'अनुसञ्चरन्ति' बम्भ्रम्यन्त इति ॥१४॥
टीकार्थ - लोक के स्वरूप वेत्ता तीर्थंकर गणधर आदि ने संसार सागर के स्वरूप का विवेचन किया है । उसका स्वरूप कैसा है ? उस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं-यह संसार स्वयम्भू रमण समुद्र के जलौघ-जल समूह के सदृश्य अपार है । जिस प्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र के जलोघ को कोई भी जलचरपानी में रहने वाले प्राणी तथा स्थलचर-जमीन पर रहने वाले प्राणी लांघ नहीं सकते, उसी प्रकार सम्यक्दर्शन के बिना इस संसार सागर को लांघा नहीं जा सकता, ऐसा समझो । यहां 'णं' शब्द वाक्य अलंकार-वाक्य
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