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श्री समवसरणाध्ययनं जैसे जैसे समाधि मार्ग-मोक्ष मार्ग व्यवस्थित है वैसे वैसे उस प्रकार से वे-तीर्थंकर प्रतिपादन करते हैं । उनका कथन है कि संसार में विद्यमान प्राणियों को असातावेदनीय के उदय के परिणामस्वरूप जो दुःख प्राप्त होता है तथा उसके विपरीत सातावेदनीय के उदय के परिणामस्वरूप जो सुख प्राप्त होता है वह स्वयं आत्मा द्वारा किया हुआ है । काल तथा ईश्वर आदि किसी अन्य द्वारा किया हुआ नहीं है । कहा गया है कि सभी प्राणी अपने द्वारा पहले किये गये कर्मों का फल विपाक प्राप्त करते हैं । अपराधों में-बुरे कृत्यों में या बुराई में तथा गुणों में-सत्कृत्यों में या भलाई में दूसरा केवल निमित्त बनता है । तीर्थंकर एवं गणधर आदि ऐसा कहते हैं कि विद्या-ज्ञान और चरण-चारित्र या क्रिया इन दोनों से ही मोक्ष फलित होता है । ज्ञाननिरपेक्ष-ज्ञान रहित क्रिया तथा क्रिया निरपेक्ष-क्रिया रहित ज्ञान से मोक्ष प्राप्त नहीं होता है । कहा है-भगवन् ! ज्ञान रहित निष्फल क्रिया को तथा क्रिया रहित ज्ञान सम्पदा का क्लेश समूह की शांति हेतु निर्सन करते हुए उन्हें निरर्थक बताते हुए आपने जगत को कल्याण का रास्ता दिखाया है।
ते चक्खु लोगंसिहणायगा उ, मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । तहा तहा सासयमाहु लोए, जंसी पयामाणव ! संपगाढा ॥१२॥ छाया - ते चक्षुर्लोकस्येह नायकास्तु मार्गमनुशासति हितं प्रजानाम् ।
तथा तथा शाश्वत माहुर्लोक मस्मिन् प्रजाः मानव संप्रगाढाः ॥ अनुवाद - तीर्थंकर आदि महापुरुष इस लोक के चक्षु के समान है-उद्योतकर हैं, वे नायक हैं-सर्वश्रेष्ठ हैं । प्रजाओं-लोगों को श्रेयस के मार्ग की शिक्षा देते हैं । वे प्रतिपादित करते हैं कि ज्यों ज्यों मिथ्यात्व की वृद्धि होती है त्यों त्यों संसार शाश्वत-चिर स्थायी बनता जाता है, जिसमें लोग निवास करते हैं ।
___टीका - किञ्च-'ते' तीर्थकरगणधरादयोऽतिशयज्ञानिनोऽस्मिन् लोके चक्षुरिव चक्षुर्वर्तन्ते, यथा हि चक्षुर्योग्यदेशावस्थितान् पदार्थान् परिच्छिनत्ति एवं तेऽपि लोकस्य यथावस्थितपदार्थाविष्करणं कारयन्ति, तथाऽस्मिन् लोके ते नायकाः-प्रधानाः, तुशब्दो विशेषणे, सदुपदेशदानतो नायका इति, एतदेवाह-'मार्ग' ज्ञानादिकं मोक्षमार्ग 'अनुशासति' कथयन्ति प्रजना-प्रजायन्त इति प्रजाः प्राणिनस्तेषां, किम्भूतं ? हितं, सद्गतिप्रापकमनर्थनिवारकं च, किञ्च-चतुर्दशरज्वात्मके लोके पञ्चास्तिकायात्मके वा येन येन प्रकारेण द्रव्यास्तिक नयाभिप्रायेण यद्वस्तु शाश्वतं तत्तथा 'त आहुः' उक्तवन्तः, यदिवा लोकोऽयं प्राणिगणः संसारान्तर्वर्ती यथा यथा शाश्वतो भवति तथा तथैवाहुः, तद्यथा-यथा यथा मिथ्यादर्शनाभिवृद्धिस्तथा तथा शाश्वतो लोकः, तथाहि-तत्र तीर्थंकराहारकवाः सर्व एव कर्मबन्धाः सम्भाव्यन्त इति, तथा च महारम्भादिभिश्चतुर्भिः स्थानैर्जीवा नरकायुष्कं यावन्निवर्तयन्ति तावत्संसारानुच्छेद इति, अथवा यथा यथा रागद्वेषादिवृद्धिस्तथा तथा संसारोऽपि शाश्वत इत्याहुः, यथा यथा च कर्मोपचयमात्रा तथा तथैव संसाराभिवृद्धिरिति । दुष्टमनोवाक्कायाभिवृद्धौ वा संसाराभिवृद्धिरवगन्तव्या, तदेवं संसारस्याभि वृद्धिर्भवति । 'यस्मिश्च' संसारे, प्रजायन्त इति 'प्रजाः' जन्तवः, हे मानव ! मनुष्याणामेव प्रायश उपदेशार्हत्वान्मानवग्रहणं, सम्यग् नारकतिर्यङ्नरामरभेदेन 'प्रगाढा:' प्रकर्षेण व्यवस्थिता इति ॥१२॥ लेशतो जन्तुभेदप्रदर्शनद्वारेण तत्पर्यटनमाह -
टीकार्थ - अतिशय ज्ञानी-विशिष्ट ज्ञान के धनी तीर्थंकर गणधर आदि इस लोक के चक्षु के सदृश्य हैं । जैसे योग्य देश में उचित स्थान में विद्यमान वस्तु को नेत्र प्रकाशित करता है उसी प्रकार वे भी लोक
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