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। श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् जाते हैं, इस प्रकार अपने सिद्धान्त के अनुसार स्थावर और जंगम लोक को-तद्गत प्राणी वर्ग को-पदार्थ समूह को जानकर हम ही वस्तु के यथावस्थित स्वरूप को जानते हैं, ऐसा प्रकट करते हुए सबका अस्तित्व हैसब पदार्थ सद्भावयुक्त हैं, ऐसा अवधारणा के साथ-निश्चय के साथ प्रतिपादित करते हैं, किन्तु पदार्थ कथंचित्किसी अपेक्षा से नहीं भी हैं । ऐसा वे नहीं कहते । उनका कथन है कि जीव जैसी जैसी क्रियाएं करताहै, वह वैसा ही स्वर्ग तथा नरक आदि के रूप में फल पाता है वे श्रमण-अन्यतीर्थिक तथा ब्राह्मण ऐसा मानते हैं कि एकमात्र क्रिया से ही सिद्धि प्राप्त होती है । वे ऐसा बतलाते हैं कि इसलोक में कष्ट या सुख सुविधा जो भी है वह सब स्वकृत है, न कालकृत है और न ईश्वरादिकृत ही है । जो क्रियावाद में विश्वास नहीं करते, उनके सिद्धान्त में ये बातें घटित नहीं होती क्योंकि आत्मा के क्रिया रहित होने पर बिना किये सुख दुःख आदि का प्राप्त होना संभव नहीं है । यदि बिना किये ही सुख दुःख का मिलना संभव हो तो कृतनाशकिये हुए का विनाश तथा अकृताभ्यागम-बिना किये हुए का आगमन-ये दोनों दोष लागू होंगे । इस संदर्भ में जैनों का प्रतिपादन है कि तुम जो कहते हो वह सत्य है । आत्मा, सुख, दुःख आदि का अवश्य ही अस्तित्त्व है किन्तु वे सर्वथा हैं ही ऐसा नहीं है क्योंकि यदि वे हैं ही इस प्रकार निश्चय की भाषा में उनका अस्तित्त्व कहा जाता है तो वे कथंचित् नहीं है-किसी अपेक्षा से उनका अस्तित्त्व नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता, ऐसा न होने पर सब कुछ सर्वात्मकता ले लेगा, इस प्रकार जगत मे समस्त व्यवहार उच्छिन्न हो जायेंगे-मिट जावेंगे तथा ज्ञानशून्य क्रिया द्वारा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वहां उस कार्य के उपाय का परिज्ञान नहीं होता तथा उपाय का परिज्ञान न होने से उपेय-प्राप्त करने योग्य पदार्थ की अवाप्ति नहीं होती । यह सर्वत्र प्रतीत-प्रसिद्ध है । समस्त क्रिया ज्ञानवती होकर ही फलवती होती है-फल प्रदान करती है, ऐसा प्राप्त होता है । अतएव कहा है कि-पहले ज्ञान होता है-उसके बाद दया-तदनुष्ठान का अनुसरण या परिपालन होता है। अतः समस्त संयमी पुरुष पहले जीवों के संबंध में ज्ञान प्राप्त करते हैं क्योंकि अज्ञानी-जिसे जीवादि तत्त्वों का ज्ञान नहीं है वह क्या करेगा, वह कर्म के क्षेत्र में कैसे सम्यक् अग्रसर होगा, वह श्रेय-पुण्य और पाप को कैसे जान पायेगा । इसलिये ज्ञान का भी प्राधान्य-प्रधानता है किंतु एकमात्र ज्ञान से ही सिद्धि प्राप्त नहीं होती क्योंकि क्रिया विकल कर्म रहित ज्ञान पंग के समान है। यह अवगत कर-जानकर सत्रकार ज्ञापि हैं कि तीर्थंकर, गणधर आदि ने इस संबंध में यों कहा । प्रश्न उठाते हुए कहते हैं किसको कहां ? मोक्ष कैसे मिलता है ? इस पर क्या कहा ? इन प्रश्नों का समाधान करते हुए कहते हैं कि विद्या-ज्ञान तथा चरणक्रिया ये दोनों जिसके होते हैं उसे मोक्ष प्राप्त होता है । यहां 'ज्ञानं च क्रिया च' ऐसा विग्रह कर अर्श आदित्वान्मत्वर्थीयोऽच केअनसार अच प्रत्यय किया गया है। तदनसार मोक्ष ज्ञान एवं क्रिया द्वारा साध्य है। अभिप्राय यह है कि तीर्थंकर और गणधर आदि ज्ञान एवं क्रिया द्वारा ही मोक्ष प्राप्त होना प्रतिपादित करते हैं अथवा इस गाथा की व्याख्या एक ओर प्रकार से भी की जाती है । प्रश्न उपस्थित करते हुए कहा जाता है कि इन समवसरणो का किसने प्रतिपादन किया जो तुमने पहले बतलाया है, और आगे बतलाओगे । यह शङ्का कर सूत्रकार कहते हैं-जिसके द्वारा पदार्थ का स्वरूप जाना जाता है उसे प्रज्ञा कहते हैं । प्रज्ञा ज्ञान का नाम है । जिनकी प्रज्ञा कहीं भी निरुद्ध-स्खलित नहीं होती उन्हें अनिरुद्ध प्रज्ञ कहा जाता है, वे तीर्थंकर हैं। वे जैसा पहले बताया गया है वस्तु का स्वरूप प्रतिपादन करते हैं । वे केवल ज्ञान द्वारा चतुर्दश रज्जु परिमित स्थावर जंगमात्मक इस लोक को हाथ में रखे आंवले की ज्यों परिज्ञात कर तीर्थंकर पद को केवल ज्ञान को प्राप्त हैं । श्रमण साधु या संयति तथा ब्राह्मण संयतासंयत-युक्तियुक्त वाणी द्वारा ऐसा आख्यान करते हैं । वे कैसे हैं यह बतलाते हैं कहीं कहीं 'तथा तयेति वा' ऐसा पाठ प्राप्त होता है । इसका यह अभिप्राय है कि
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