Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 542
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् वह उनका मृषावाद है, असत्य भाषण है । इस पर जैन दार्शनिकों का यह कथन है कि वास्तविकता यह नहीं हैं । सम्यक्-भलीभांति शास्त्र का अभ्यास किया हो तो उसके कथन में विसंवाद-विपरीतता दिखाई नहीं देती। जो छः स्थानों पर पतित्व-स्खलन की बात कही गयी है वह मनुष्य के क्षयोपशय की तरतमता-न्यूनाधिकता के आधार पर है। प्रमाणाभास में दोष आने से सम्यक प्रमाण में दोष की आशंका करना समुचित नहीं है। रेगिस्तान में मरु मरीचिका में जल का प्रत्यक्षीकरण व्यभिचार-दोषयुक्त है । वहां जल नहीं होता किन्तु इसके आधार पर सचमुच जहां जल है तविषयक प्रत्यक्ष को व्यभिचरित् या असत्य कहना युक्तियुक्त नहीं हो सकता। मशक में धुंआ भर कर कहीं ले जाकर उसका मुंह खोल दे तो उसमें से निकलता हुआ धुंआ उसमें अग्नि साबित करने में सक्षम नहीं होता । यह देखते हुए सचमुच जहां आग से निकलता हुआ धुंआ हैं वहां वह अग्नि सिद्ध करने में अक्षम नहीं बतलाया जा सकता । इस प्रकार सम्यक् विवेचनपूर्वक जो कार्य किया जाता है उसमें कदापि दोष-अन्तर नहीं आता । इसलिये प्रमाता-प्रमाणित करने वाले पुरुष के अपराध या अज्ञान से यदि कुछ प्रमाणित नहीं होता तो प्रमाण में दोष निरूपित करना उचित नहीं है । इसी प्रकार सुविवेचित विचारित पर्यालोचित कर प्रतिपादित किये जाने वाले निमित्त शास्त्र में भी व्यभिचार-दोष-अन्तर नहीं आता । छींक हो जाने पर भी जाने वाले व्यक्ति के कार्य सिद्ध होने की बात कह कर जो निमित्त शास्त्र को दोषयुक्त होने की शंका करते हैं । वह अनुपपन्न-अनुपयुक्त है । क्योंकि कार्य की जल्दी में छींक होने पर भी जाते हुए पुरुष का कार्य सिद्ध होता हुआ दृष्टिगोचर होता है वैसा अन्तराल में-बीच में निष्पन्न शोभन-उत्तम निमित्तों के कारण हुआ है । यह अवगत करना चाहिये । उत्तम निमित्त-शकुन को लेकर प्रस्थान करने वाले पुरुष का कार्य असिद्धअसफल देखा जाता है । वह भी बीच में आये अन्य अशुभ निमित्तो के कारण होता है, यह जानना चाहिये । ऐसा सुना जाता है कि बुद्ध ने अपने शिष्यों को आहूत कर-बुलाकर कहा कि यहां द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष होगा अतः तुम लोग देशान्तर-अन्य देश में चले जाओ उनका यह वचन सुनकर जब वे जाने को उद्यत हुए तभी बुद्ध ने उन्हें रोका और कहा तुम लोग मत जाओ । आज ही यहां एक पुण्यवान् महासत्व-उत्तम पुरुष का जन्म हुआ है । इसलिये उनके प्रभाव से सुभिक्ष होगा-अच्छा जमाना होगा । इससे यह प्रतीत होता है कि बीच में आया हुआ अन्य निमित्त-शुभ शकुन: पहले के विपरीत शकुन से प्रतिकूल-उससे उल्टा प्रभाव उत्पन्न करता है। ते एवमक्खंति समिच्च लोग, तहा तहा (गया) समणा माहणा य । सयं कडं णन्नकडं च दुक्खं, आहंसु विजाचरणं पमोक्खं ॥११॥ छाया - त एवमाख्यान्ति समेत्य लोकं तथा तथा (गता) श्रमणामाहनाश्च । स्वयं कृतं नाऽन्यकृतञ्च दुःखम् आहुर्विद्याचरणञ्च मोक्षम् ॥ - अनुवाद - श्रमण-बौद्ध भिक्षु तथा माहण-ब्राह्मण परम्परानुगत पुरुष अपने अपने सिद्धान्तों के अनुसार लोक को जानकर प्रतिपादित करते हैं कि क्रियानुसार ही फल होता है । वे यह भी कहते हैं कि दुःख अपने द्वारा ही कृत है । दूसरे के द्वारा नहीं । किन्तु सर्वज्ञ तीर्थंकर ऐसा प्ररूपित करते हैं कि ज्ञान तथा क्रिया से ही मोक्ष प्राप्त होता है। टीका-साम्प्रतं क्रियावादिमतंदुदूषयिषुस्तन्मतमाविष्कुर्वन्नाह-ते क्रियात एव ज्ञाननिरपेक्षायाः दीक्षादिलक्षणाया मोक्षमिच्छन्ति ते एवमाख्यान्ति, तद्यथा-'अस्ति माता पिता अस्ति सुचीर्णस्य कर्मणः फल' मिति, किं कृत्वा (514)

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