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- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् स्वरं लक्षणं व्यञ्जनप्रियेवंरूपंनवमपूर्वतृतीयाचारवस्तुविनिर्गतं सुखदुःख जीवितमरण लाभालाभादिसंसूचकं निमित्तमधीत्य लोकेऽस्मिन्नतीतानि वस्तूनि अनागतानि च 'जानन्ति' परिच्छिन्दन्ति, न च शून्यादिवादेष्वेतद् घटते, तस्मादप्रमाणकमेव तैरभिधीयत इति ॥९॥
____टीकार्थ - ज्योतिष शास्त्र को 'संवत्सर' कहा जाता है । सपने में देखी हुई घटनाओं का जो फल बताता है उसे स्वप्न या स्वप्नशास्त्र कहा जाता है-श्रीवत्स आदि चिन्ह विशेष को लक्षण कहा जाता है । वह बाहरी और भीतरी दो प्रकार का होता है । वाणी-मनुष्य या पक्षी की आवाज, उत्तम शकुन एवं शरीर में विद्यमान मषक-मस्सा, तथा तिल आदि का जो फल सूचित करता है, उसे निमित्त शास्त्र कहा जाता है । उल्कापात, दिग्दाह, मेघगर्जन तथा भूकम्प आदि फल ज्ञापक शास्त्र तथा अष्टांगयुक्त निमित्त शास्त्रों का अध्ययन कर पुरुष अनागत काल की घटनाओं को जानते हैं । निमित्त शास्त्र के आठ अंग ये हैं - १. भौम, २. उत्पात, ३. स्वप्न, ४. आन्तरिक्ष, ५. आंग, ६. स्वर, ७. लक्षण, ८. व्यंजन । चतुर्दश पूर्वो के अन्तर्गत नवम पूर्व के तृतीय आचार वस्तु प्रकरण से विनिर्गित-उद्धृत सुख, दुःख, जीवन, मृत्यु, लाभ, अलाभ आदि के संसूचक निमित्त शास्त्र का अध्ययन कर इस लोक में अतीत, अनागत, बातों को-घटनाओं को लोग जान लेते हैं, किन्तु शून्यवाद को स्वीकार करने पर यह संभव नहीं होता । इसलिये लोकायतिक आदि जो कहते हैं वह अप्रमाण-प्रमाण शून्य
हैं।
केई निमित्ता, तहिया भवंति, केसिंचि तं विप्पडिएति णाणं । ते विजभावं अणहिजमाणा, आहंसु विजापरिमोक्खमेव ॥१०॥ छाया - कानिचिन्निमित्तानि सत्यानि भवन्ति, केषाञ्चित्तत् विपर्येति ज्ञानम् ।
ते विद्याभावमनधीयाना आहुर्विद्यापारिमोक्षमेव ॥ अनुवाद - कई निमित्त-निमित्त के आधार पर उपस्थापित तथ्य सच होते हैं तथा किन्हीं निमित्तवादियों का ज्ञान विपरीत होता है-जैसा वे बताते हैं, वैसा नहीं मिलता । यह देखकर अक्रियावादी विद्या का अध्ययन न करते हुए उसके त्याग को ही श्रेयस्कर बताते हैं।
टीका – एवं व्याख्याते सति आह पर: ननु व्यभिचार्यपि श्रुतमुपलभ्यते, तथाहि-चतुर्दशपूर्वविधामपि षट्स्थानपतित्वमागम उद्देष्यते किं पुनरष्टाङ्गनिमित्तशास्त्रविदाम् ? अत्र चाङ्गवर्जितानां निमित्तशास्त्राणामानुष्टुमेन छन्दसाऽर्धत्रयोदश शतानि सूत्रं तावन्त्येव सहस्राणि वृत्तिस्तावत्प्रमाणलक्षा परिभाषेति, अङ्गस्य त्वर्धत्रयोदशसहस्त्राणि सूत्रं, तत्परिमाणलक्षा वृतिरपरिमितं वार्तिकमिति, तदेवमष्टाङ्गनिमित्तवेदिनामपि परस्परतः षट्स्थानपमितत्वेन. व्यभिचारित्वमत इदमाह- केई 'त्यादि, छान्दसत्वात्प्राकृतशैल्या वा लिङ्गव्यत्ययः, कानिचिन्निमित्तानि 'तथ्यानि' सत्यानि भवन्ति, केषाञ्चित्तु निमित्तानां निमित्तवेदिनां वा बुद्धिवैकल्यात्तथाविधक्षयोपशमाभावेन तत् निमित्त ज्ञानं'विपर्यासं' व्यत्ययमेति आर्हतानामपि निमित्त व्यभिचारः समुपलभ्यते, किं पुनस्तीथिकानां ? तदेवं निमित्तशास्त्रस्य व्यभिचारमुपलभ्य 'ते' अक्रियावादिनो 'विद्यासद्भावं' विद्यामनधीयानाः सन्तो निमित्तं तथा चान्यथा च भवतीति मत्वा ते 'आहंसु विजापलिमोक्खमेव' विद्यायाः-श्रुतस्य व्यभिचारेण तस्य परिमोक्षं-परित्यागमाहु:उक्तवन्तः, यदिवा-क्रियाया अभावाद्विद्यया-ज्ञानेनैव मोक्षं-सर्वकर्मच्युतिलक्षणमाहुरिति । क्वचिच्चरमपादस्यैवं
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