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श्री समवसरणाध्ययनं पाठः, 'जाणासु लोगंसि वयंति मंद' त्ति. विद्यामनधीत्यैव स्वयमेव लोकमस्मिन् वा लोकेभावान् स्वयं जानीमः, एवं मंदाः' जड़ा वदन्ति, न च निमित्तस्य तथ्यता, तथाहिकस्यचित्क्वचित्क्षुतेऽपि गच्छत: कार्यसिद्धिदर्शनाद, अतो निमित्तवलेनादेशविधायिनां मृषावाद एव केवलमिति, नैतदस्ति, न हि सम्यगधीतस्य श्रुतस्यार्थे विसंवादोऽस्ति, यदपि षट्स्थानपतितत्वमुदघोष्यते तदपि पुरुषाश्रित क्षयोपशमवशेन न च प्रमाणाभासव्यभिचारे सम्यक्प्रमाणव्यभिचाराशङ्का कर्तुं युज्यते, तथाहि-मरुमरीचिकानिचये जलग्राहि प्रत्यक्षं व्यभिचरतीतिकृत्वा किं सत्य जल ग्राहिणोऽपि प्रत्यक्षस्य व्यभिचारो युक्तिसंगतो भवति ? न हि मशकवर्तिरग्निसिद्धावुपदिश्यमाना व्यभिचारिणीति सत्यधूमस्यापि व्यभिचारो, न हि सुविवेचितं कार्यं कारणं व्यभिचरतीति, ततश्च प्रमातुरयमपराधो न प्रमाणस्य, एवं सुविवेचितं निमित्त श्रुतमपि न व्यभिचरतीति, यश्च क्षुतेऽपि कार्यसिद्धिदर्शनेन व्यभिचारः शङ्कयते सोऽनुपपन्नः, तथाहि-कार्याकूतात् क्षुतेऽपि गच्छतो या कार्यसिद्धिः साऽपान्तराले इतरशोभननिमितबलात्संजातेत्येवमवगन्तव्यं, शोभननिमित्तप्रस्थितस्यापीतरनिमित्तबला-त्कार्यव्याघात इति, तथा च श्रुति:-किल बुद्धः स्वशिष्यानाद्ब्रयोक्तवान्, यथा-'द्वादशवार्षिकमत्र दुभिक्षं भविष्यतीत्यतो देशान्तराणि गच्छत यूयं' ते तद्वचनाद्गच्छन्तस्तेनैव प्रतिषिद्धाः, यथा 'मा गच्छत यूयम्, इहाद्यैव पुण्यवान् महासत्त्वः संजातस्तत्प्रभावात्सुभिक्षं भविष्यति' तदेवमन्तराऽपरनिमित्तसद्भावात्तव्यभिचारशङ्केति स्थितम् ॥१०॥
टीकार्थ – इस प्रकार व्याख्यात करने पर-क्रियावाद का समर्थन करने पर परमतवादी प्रतिपादित करता है । श्रुतज्ञान, व्यभिचारी-दोषयुक्त या विपरीत भी उपलब्ध होता है क्योंकि चतुर्दश पूर्वधर-चौदह पूर्वो के ज्ञाता महापुरुष भी छ: स्थानों परस्खलित होते हैं-भूल करते हैं । ऐसा शास्त्र में उद्घोषित-कहा गया है। फिर अष्टांग निमित्त वेत्ताओं की तो बात ही क्या ? अंग वर्जित-अंगों से पृथक् निमित्त शास्त्र बारह सौ पचास अनुष्टुप् श्लोक परिमित है । उन श्लोकों पर साढ़े बारह हजार श्लोक परिमित वृत्ति हैं । उस पर साढ़े बारह हजार श्लोक परिमित परिभाषा है । अंगों के सूत्र साढ़े बारह हजार हैं तथा उन पर साढ़े बारह लाख श्लोक परिमित वृत्ति है । उस पर अपरिमित-परिमाण रहित वार्तिक है । इस प्रकार अष्टांग निमित्त वेत्ताओं के भी परस्पर छः स्थानों पर स्खलित होने से उनका ज्ञान सदोष है । कहा गया है कि कई निमित्त तथ्य पूर्ण होते हैं तथा निमित्त वेत्ताओं के बुद्धि वैकल्य-मेधा की न्यूनता तथा उस प्रकार के क्षयोपशम के अभाव से उनके निमित्त ज्ञान में विपर्यास-विपरीतता, उनके कथन से प्रतिकूलता दृष्टिगोचर होती है । यहां केई इत्यादि पद छांदस होने से प्राकृत की शैली-पद्धति द्वारा नपुसंक लिंग के स्थान पर पुल्लिंग में प्रयुक्त हैं । आहतो-जैन वेत्ताओं के निमित्त ज्ञान में भी व्यभिचार-दोष या अन्तर उपलब्ध होता है । फिर अन्य मतवादियों के निमित्त ज्ञान में व्यभिचार-दोष होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । इस प्रकार निमित्त शास्त्र के ज्ञान में व्यभिचार-दोष उपलब्ध कर अक्रियावादी विद्या का अध्ययन न करते हए मिश्र शास्त्र को सच व झठा दोनों ही प्रकार का मानते हए विद्या-श्रतज्ञान के त्याग का उपदेश देते हैं अथवा वे क्रिया के अभाव से-क्रिया को निरर्थक मानकर मात्र ज्ञान से ही सब कर्मच्युत-नष्ट हो जाते हैं, मोक्ष प्राप्त हो जाता है, ऐसा कहते हैं । कहीं कहीं इस गाथा के चौथे चरण का पाठ 'जाणासु लोगंसि वयंति मंदा' ऐसा प्राप्त होता है । इसका अभिप्राय यह है कि अक्रियावादी ऐसा मानते हैं कि विद्याध्ययन किये बिना ही हम लोक-लोकगत पदार्थों को जानते हैं । वे मंद-अज्ञानी हैं। वे निमित्त शास्त्र को तथ्यपूर्ण नहीं मानते । उनका कथन है कि कोई जा रहा हो और छींक हो जाये तो भी उसके कार्य की सफलता दृष्टिगोचर होती है तथा एक ऐसा पुरुष है जो शुभ शकुन के साथ जा रहा हो फिर भी उसकी सफलता अनिश्चित दिखाई देती है । अतः निमित्त के आधार पर जो नैमित्तिक-ज्योतिषी फलादेश कहते हैं
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