Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 546
________________ ___ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् के पदार्थों का सच्चा स्वरूप प्रकाशित करते हैं । वे इस जगत में नायक-प्रधान या सर्वश्रेष्ठ हैं । यहां आया हुआ तु शब्द विशेषण के अर्थ में है । उसके अनुसार सदुपदेश देने के कारण वे सर्वश्रेष्ठ हैं-यह अभिप्राय है । वे प्राणियों को मोक्ष मार्ग बतलाते हैं । वह मार्ग कैसा है ? यह स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि वह सद्गति को-उत्तम गति को प्राप्त कराता है तथा अनर्थ का-दुर्गति का निवारण करता है । वे चतुर्दश रज्जु परिमित पांच अस्तिकाय युक्त इस लोक में जिस जिस प्रकार से द्रव्यास्तिक नय के अनुसार जो वस्तु शाश्वत है, उसे उसी रूप में आख्यान करते हैं । अथवा इस लोक में प्राणीवृन्द जिस जिस प्रकार से संसार में शाश्वत होते जाते हैं । वैसा भी वे बतलाते हैं । उनके कथनानुसार ज्यों ज्यों मिथ्यादर्शन बढ़ता जाता है त्यों त्यों संसार शाश्वतस्थिर होता जाता है क्योंकि तीर्थंकर और आहारक नाम कर्म वर्जित सभी कर्मबंध उसमें संभावित हैं । क्योंकि महा आरंभ आदि चार स्थानों द्वारा जीव नरकायुष्य का निर्वतन-बंध करते हैं । तब तक संसार का उच्छेदनाश नहीं होता अथवा ज्यों ज्यों राग-द्वेष आदि की वृद्धि होती जाती है त्यों त्यों संसार भी सुस्थिर होता जाता है । ऐसा तीर्थंकरों ने प्ररूपित किया है । इसलिये ज्यों ज्यों कर्मों का उपचय संचय या बंध होता जाता है त्यों त्यों संसार बढ़ता जाता है । दुष्ट-दूषित मन वचन तथा शरीर की अभिवृद्धि होने पर-मन, वचन, शरीर के असत् कार्यों में प्रवृत्त होने पर संसार बढ़ता जाता है, ऐसा जानना चाहिये । संसार में जो उत्पन्न होते हैं उन्हें प्रजा कहा जाता है । सभी जंतु या प्राणी प्रजा के अन्तर्गत हैं । वे नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव इन चार गतियों में विशेष रूप से अवस्थित है । उनमें उपदेश के योग्य प्रायः मनुष्य ही है। अत: यहां मानव को संबोधित कर यह कहा गया है कि तुम यह जानो । सूत्रकार संक्षेप में प्राणियों के भेद बतलाकर वे संसार में किस प्रकार पर्यटन करते हैं, यह प्रतिपादित करते हैं । जे रक्खसा वा जमलोइया वा, जे वा सुरागंधव्वा य काया । आगासगामी य पुढोसिया जे, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति ॥१३॥ छाया - ये राक्षसा वा यमलौकिका वा, ये वासुराः गन्धर्वाश्च कायाः । ___ आकाशगामिनश्च पृथिव्याश्रिताश्च, पुनः पुनो विपर्यासमुपयान्ति ॥ अनुवाद - राक्षस संज्ञक व्यंतर यमलोकवर्ती जीव, देव, गंधर्व, गगनविहारी तथा पृथ्वी निवासी प्राणीये सभी पुनः पुनः विविध गतियों में पर्यटन करते हैं। टीका - 'ये' केचन व्यन्तरभेदा राक्षसात्मानः, तदग्रहणाच्च सर्वेऽपि व्यन्तरा गृहन्ते तथा यमलौकिकात्मानः, अ (म्बाम्ब) म्बादयस्तदुपलक्षणात्सर्वे भवनपतयः तथा ये च 'सुराः' सौधर्मादिवैमानिकाः, चशब्दाज्योतिष्काः, सूर्यादयः, तथा ये 'गान्धर्वा' विद्याधरा व्यन्तरविशेषा वा, तद्ग्रहणं च प्राधान्यख्यापनार्थं, तथा 'कायाः' पृथिवीकायादयः षडपि गृह्यन्त इति । पुनरन्येव प्रकारेण सत्त्वान्संजिघृक्षुराह-ये केचन 'आकाशगामिनः' संप्राप्ताकाशगमनलब्धयश्चतुविर्धदेव निकाय विद्याधरपक्षिवायवः, तथा ये च 'पृथिव्याश्रिताः' पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियास्ते सर्वेऽपि स्वकृतकर्मभिः पुनः पुनर्विविधम्-अनेकप्रकारं पर्यासंपरिक्षेपमरहट्टघटीन्यायेन परिभ्रमणमुप-सामीप्येन यान्ति-गच्छन्तीति ॥१३॥ ____टीकार्थ - यहां व्यन्तर जाति के अन्तर्गत जो राक्षस हैं उनको ग्रहण किया गया है जिससे सभी व्यन्तर यहां गृहीत होते हैं । अंब, अम्बरीष आदि यमलोकवासी जीव हैं । उनके उपलक्षण से यहां समस्त भवनपतियों 518)

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