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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् आत्मवत्पश्यति सर्वस्मिन्नपि लोके यावत्प्रमाणं मम तावदेव कुन्थोरपि, यथा वा मम दुःखमनभिमतमेवं सर्वलोकस्यापि सर्वेषामणि प्राणिनां दुःखमुत्पद्यते दुःखातोद्विजन्ति तथा चागमः-"पुढविकाए णं भंते ! अक्कंते समाणे केरिसयं वेयणं वेएइ !" इत्याद्याः सूत्रालापकाः, इति मत्वा तेऽपि नाक्रमितव्या न संघट्टनीयाः, इत्येव यः पश्यति स पश्यति । तथा लोकमिमं महान्तमुत्प्रेक्षते, षड्जीव सूक्ष्मबादरभेदैराकुन्त्वालमहान्तं, यदिवाऽनाद्यनिधनत्वान्महान् लोकः, तथाहि-भव्या अपि केचन सर्वेणापि कालेन न सेत्स्यन्तीति, यद्यपि द्रव्यतः षड्द्रव्यात्मकत्वात् क्षेत्रतश्चतुर्दशरज्जुप्रमाणतया सावधिको लोकस्तथापि कालतो भावतश्चानाद्यनिधनत्वात्पर्यायाणां जानन्तत्वान्महान् लोकस्तुमत्प्रेक्षत इति । एवं च लोकमुत्प्रेक्षमाणो बुद्धः अवगततत्त्वः सर्वाणि प्राणिस्थानान्यशाश्वतानि, तथा नात्रापसदे संसारे सुखलेशोऽप्यस्तीत्येवं मन्यमानः 'अप्रमत्तेषु' संयमानुष्ठायिषु यतिषु मध्ये तथाभूत एव परिः -समन्ताद्ब्रजेत् परिव्रजेत् यदिवाबुद्धः सन् 'प्रमत्तेषु' गृहस्थेषु अप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति॥१८॥
___टीकार्थ - वे भूत-प्राणी कौन हैं ? जिनकी हिंसा की आशंका से साधु आरम्भ समारम्भ नहीं करते। यह शंका उपस्थित करते हुए सूत्रकार कहते हैं-लघुकाय युक्त कुन्थु आदि एवं जो अन्य सूक्ष्म जन्तु हैं वे सभी प्राणों को धारण करते हैं, जो बादर शरीर युक्त हैं वे भी प्राणधारी हैं तत्त्वदृष्टा पुरुष उन सबको अपने सद्दश मानते हैं । वे ऐसा समझते हैं कि समग्र लोक में मेरा जीव यावत् प्रमाण है-जितना परिमित है, प्रमाणयुक्त है कुन्थु आदि अन्यान्य प्राणियों के जीव भी उतने ही हैं । जिस प्रकार मुझे दुःख होता है, उसी तरह अन्य प्राणियों को भी दुःख होता है । दुःख से वे उद्वेजित-पीड़ित होते हैं । अतएव आगम में कहा है-भंते ! पृथ्वीकायिक जीव आक्रान्त होकर-दुःख से उत्पीड़ित होकर किस प्रकार की वेदना अनुभव करता है (संक्षेप में यही उत्तर है कि हमारी तरह ही वह दीनतापूर्वक वेदना अनुभव करता है) । इत्यादि सूत्रों के आलापक-कथनों को मानतेहुए किसी भी जीव पर आक्रमण-हिंसक उपक्रम नहीं करना चाहिये । जो ऐसा देखता है-समझता है, वही वास्तव में देखता है सत्यदर्शी है। तत्त्वदृष्टा इस लोक की महानता-विशालता को जानता है । यह लोक छः प्रकार के सूक्ष्म बादर भेदयुक्त जीवों से परिपूर्ण होने के कारण महान-विशाल है अथवा अनादि अनिधन-अनन्त होने के कारण महान है क्योंकि कई भव्य प्राणी सब कालों में सिद्धत्त्व नहीं पाते । द्रव्य दृष्टि से यह लोक षडद्रव्यात्मक है। क्षेत्र की दृष्टि से चतुर्दशरज्जु परिमित है। यों वह सावधिक-अवधि या सीमा सहित है किन्तु काल तथा भाव की अपेक्षा से यह अनादि एवं अनन्त है । पर्यायों की अपेक्षा से यह अनन्त है । अतः यह महान है । तत्त्वदृष्टा इसे इस रूप में देखते हैं । लोक का इस प्रकार उत्प्रेक्षण करता हुआ-देखता हुआ तत्त्वज्ञपुरुप सभी प्राणियों के स्थान अशाश्वत-अनित्य है । इस अपसद-दुःखपूर्ण संसार में सुख का अंश मात्र भी नहीं है यों मानता हुआ-अनुभव करता हुआ संयम परिपालक साधुओं के मध्य-उनके सान्निध्य में जाकर परिव्रज्या स्वीकार करे अथवा वह प्रमत्त-गृहस्थ में अप्रमत्त रहता हुआ संयम के अनुष्ठान में संलग्न रहे।
जे आयओ परओ वावि णच्चा, अलमप्पणो होति अलं परेसिं । तं जोइभूतं च सयावसेजा, जे पाउकुज्जा अणुवीति धम्मं ॥१९॥ छाया - य आत्मनः परतोवाऽपि ज्ञात्वाऽलमात्मनोभवत्यलं परेषाम् ।
तं ज्योतिर्भूतश्च सदा वसेद् ये प्रादुष्कुर्य्यरनुविचिन्त्य धर्मम् ॥ अनुवाद - जो अपने द्वारा या अन्य के द्वारा धर्म को परिज्ञात कर उसका उपदेश करता है, वह अपनी तथा अन्य की रक्षा करने में, असत् से बचाने में समर्थ है । जो अनुविचिन्तन कर-पुनः पुनः चिंतन विमर्श
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