Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 553
________________ श्री समवसरणाध्ययनं कर धर्म को अभिव्यक्त करता है, उस ज्योतिर्मय - सद्ज्ञान के प्रकाशपुंज मुनि के सान्निध्य में सदैव निवास करना चाहिये । टीका किच्च- 'यः' स्वयं सर्वज्ञ आत्मनस्त्रैलोक्योदर विवरवर्ति पदार्थ दर्शी यथाऽवस्थितं लोकं ज्ञात्वा तथा यश्च गणधरादिकः 'परत:' तीर्थंकरादेर्जीवादीन् पदार्थान् विदित्वा परेभ्य उपदिशति स एवंभूतो हेयोपादेयवेदी 'आत्मनस्त्रातुमलं' आत्मानं संसारावटात्पालयितुं समर्थो भवति, तथा परेषां च सदुपदेशदानतस्त्राता जायते, 'तं' सर्वज्ञं स्वत एव सर्ववेदिनं तीर्थंकरादिकं परतोवेदिनं च गणधरादिकं 'ज्योतिर्भूतं' पदार्थप्रकाशतया चन्द्रादित्यप्रदीपकल्पमात्महितमिच्छन् संसारदुःखोद्विग्नः कृतार्थमात्मानं भावयन् 'सततम्' अनवरतम् 'आवसेत्' सेवेत, गुर्वन्तिक एव यावज्जीवं वसेत्, तथा चोक्तम् " नाणस्य होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं ण मुंचति ॥९॥” छाया - ज्ञानस्यभवति भागी स्थिरतरो दर्शन चारित्रे च । धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ॥१॥ क एवं कुर्युः ? इति दर्शयति-ये कर्मपरिणतिमनुविचिन्त्य "माणुस्सखेत्त जाइ" इत्यादिना दुर्लभां चसद्धर्मावाप्तिं सद्धर्मं वा श्रुतचारित्राख्यं क्षान्त्यादिदशविधसाधुधर्मं श्रावकधर्मं वा 'अनुविचिन्त्य' पर्यालोच्य ज्ञात्वा वा तमेव धर्मं यथोक्तानुष्ठानतः 'प्रादुष्कुर्युः' प्रकटयेयु ते गुरुकुलवासं यावज्जीवमासेवन्त इति, यदिवा ये ज्योतिर्भूतमाचार्यं सततमासेवन्ति त एवागमज्ञा धर्ममनुविचिन्त्य 'लोकं' पञ्चास्तिकायात्मकं चतुर्दशरज्वात्मकं वा प्रादुष्कुर्युरिति क्रिया ॥१९॥ -- टीकार्थ जो स्वयं सर्वज्ञ हैं, गणधर आदि पदाधिष्ठित हैं, वे त्रैलोक्य में विद्यमान समग्र पदार्थों को जिस रूप में वे अवस्थित हैं वैसे स्वयं जानकर अथवा तीर्थंकर आदि से पदार्थों को अवगत कर दूसरों को उपदेश करते हैं, वे हेय, उपादेय वेत्ता संसार रूपीगहन वन अपना तथा सदुपदेश द्वारा औरों का त्राण करने सक्षम होते हैं। वे स्वयं समग्र पदार्थों के ज्ञाता तीर्थंकर आदि तथा अन्य से पदार्थों को ज्ञात करने वाले गणधर आदि ज्योतिर्मय महापुरुष हैं। वे पदार्थों के प्रकाशक- तद्विषयक ज्ञान के उद्भाषक होने के कारण चन्द्र तथा सूर्य एवं दीपक के सद्दश हैं। अतः आत्महितेच्छु, संसार के दुःखों से उद्विग्न अपने को कृतार्थ - धन्य अनुभव करता हुआ उनके सान्निध्य में निरन्तर आवास करे अर्थात् गुरु की सन्निधि में ही जीवन पर्यन्त रहे । कहा गया है - जो गुरुकुल में निवास करता है वह ज्ञान का भागी अधिकारी होता है। दर्शन और चारित्र में स्थिरतर-अत्यधिक दृढ़ होता है । इसलिये वे पुरुष धन्य हैं जो यावज्जीवन गुरुकुलवास का त्याग नहीं करते। कौन ऐसा करे ? इस प्रश्न का स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं- जो जीव कर्मों की परिणति परिणाम या फल का अनुचिन्तन कर तथा मानव जीवन, आर्यक्षेत्र, उत्तम जाति तथा श्रुतचारित्रमूलक क्षांति आदि से युक्त दशविध साधु धर्म तथा श्रावक धर्म का अनुचिन्तन-पर्यालोचन करउसका यथाविधि अनुष्ठान - परिपालन करते हुए औरों के समक्ष उसे प्रकट करते हैं - बताते हैं, वे पुरुष यावज्जीवन गुरुकुल का आसेवन करते हैं । अथवा जो ज्योतिर्मय-प्रकाशपुंज आचार्य की सेवा में सदा रहते हैं वे ही आगमवेत्ता पुरुष धर्म का अनुविचिन्तन कर पंचास्तिकायात्मक चतुर्दशरज्जु परिमित इस लोक का औरों को ज्ञान कराते हैं । अत्ताण जो जाणति जो य लोगं, गई च जो जाणइ णागइंच । जो सासयं जाण असासयं च, जातिं (च) मरणं च जणोववायं ॥२०॥ 525

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