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श्री मार्गाध्ययनं पूईकम्मं न सेविजा, एस धम्मे वुसीमओ ।
जं किंचि अभिकंखेजा, सव्वसो तं न कप्पए ॥१५॥ छाया - पूर्तिकर्म न सेवेत, एषधर्मः संयमवतः । .
यत्किञ्चिदभिकाङ्क्षत, सर्वशस्तन्न कल्पते । अनुवाद - जिस आहार में आधाकर्म-दोषयुक्त आहार का एक कण भी मिला हुआ हो, साधु उसे ग्रहण न करे । संयमशील साधु का यही धर्म है । यदि शुद्ध आहार में ऐसी शंका हो जाय कि वह वास्तव में शुद्ध नहीं है तो भी साधु उसे स्वीकार न करे । .
टीका - किञ्च-आधाकर्माद्य विशुद्धकोट्यवयवेनापि संपृक्तं पूर्तिकर्म, तदेवंभूतमाहारादिकं 'न सेवेत' नोपभुञ्जीत, एषः-अनन्तरोक्तो धर्मः कल्पः स्वभावः-'बुसीमओ' त्ति सम्यक्संयम वतोऽयमेवानुष्ठानकल्पो यदुताशुद्धमाहारादिकं परिहरतीति, किञ्चयदप्य शुद्धत्वेनाभिकाङ्क्षत्-शुद्धमप्यशुद्धत्वेनाभिशङ्केत किञ्चिदप्याहारादिकं तत् 'सर्वशः' सर्वप्रकारमप्याहारोपकरणपूर्तिकर्म भोक्तं न कल्पत इति ॥१५॥
टीकार्थ - जो आहार आधा कर्म आदिअविशुद्ध कोटि के-अशुद्धतापूर्ण आहार के एक कण से भी संपृक्त-सम्मिश्रित हो उसे पूति कर्म कहा जाता है । साधु इस प्रकार के आहार का उपभोग-सेवन न करे । संयम का सम्यक् पालन करने वाले साधु का यही धर्म है-स्वभाव है अथवा अनुष्ठान है । वह अशुद्ध आहार आदि का परिहार-परिवर्जन करता है । शुद्ध होते हुए भी जिस आहार में अशुद्धता की आशंका हो साधु के लिये वह आहार तथा सर्वविध आहारोपकरण जो पूति कर्म में आते हैं कल्पनीय-सेवन करने योग्य नहीं है।
हणंतं णाणुजाणेजा, आयगुत्ते जिइंदिए । ठाणाइं संति सड्ढीणं, गामेसु नगरे सु वा ॥१६॥ छाया - जन्तं नानुजोनीयादात्मगुप्तो जितेन्द्रियः ।
__ स्थानानि सन्ति श्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषुवा ॥
अनुवाद - साधु को गांवों और नगरों में अपने श्रद्धावान उपासकों के स्थान आवास हेतु प्राप्त होते हैं । वहां यदि कोई जीव हिंसात्मक कार्य करे तो आत्मगुप्त-पाप निवृत्त, जितेन्द्रिय साधु उसकी अनुमति न दे।
टीका - किञ्चान्यत्-धर्म श्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषु वा खेटकर्बटादिषु वा 'स्थानानि' आश्रयाः 'सन्ति' विद्यन्ते, तत्र तत्स्थानाश्रितः कश्चिद्धर्मोपदेशेन किल धर्मश्रद्धालुतया प्राण्युपमर्दकारिणीं धर्मबुद्धया कूपतडागखननप्रपासत्रादिकां क्रियां कुर्यात् तेन च तथा भूत क्रियायाः कर्ता किमत्र धर्मोऽस्ति नास्तीत्येवं पृष्टोऽपृष्टो वा तदुपरोधाद्भायाद्वा तं प्राणिनो घ्नन्तं नानुजानीयात्, किंभूतः सन् ? - 'आत्मना' मनोवाक्कायरूपेण गुप्त आत्मगुप्तः तथा 'जितेन्द्रियो' वश्येन्द्रियः सावद्यानुष्ठानं नानुमन्येत ॥१६॥ सावद्यानुष्ठानानुमतिं परिहर्तुकाम आह
टीकार्थ - धर्म में श्रद्धाशील जनों-श्रमणों, उपासकों के गांवों, नगरों, उपनगरों तथा आसपास के आवास स्थानों में साधुओं को रहने हेतु स्थान प्राप्त होता है । वहां रहने वाला कोई पुरुष धर्म श्रद्धालुता के कारण धर्मोपदेश से प्रेरित होकर धर्म बुद्धि से वैसी क्रियाएं जिनमें प्राणियों का उपमर्दन-व्याघात होता है
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