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श्री समवसरणाध्ययनं में श्रद्धा रखने वाले सभी लोग एकमत से स्वीकार करते हैं कि आत्मा शरीर मात्र व्यापी है क्योंकि शरीर में ही आत्मा का गुण चैतन्य उपलब्ध होता है । पहले अज्ञानवादी ने इतरेतराश्रय-अन्योन्याश्रय दोष होने की चर्चा की है, वह भी यहां सम्भावित नहीं है क्योंकि शास्त्र आदि के अभ्यास से बुद्धि में अतिशय-अधिक या विशिष्ट ज्ञान होता है । ऐसा अपनी आत्मा में प्राप्त होता है-ज्ञात होता है । अतः जो वस्तु प्रत्यक्ष देखी जाती हो, उसमें कोई अनुपपत्ति-बाधा उपस्थित नहीं होती ।
अज्ञानवादी जो यह प्रतिपादित करते हैं कि ज्ञान ज्ञेय के स्वरूप को स्वायत्त करने में-भली भांति जानने में समर्थ नहीं होता क्योंकि सर्वत्र पदार्थ के आगे के हिस्से से पीछे का हिस्सा व्यवहित रहता है-आवृत्त या ढका रहता है तथा वस्तु का सबसे अन्तिम भाग परमाणु है जो अतीन्द्रिय है-इंद्रियों द्वारा गृहीत नहीं किया जा सकता ।
यह केवल कहने मात्र की बात है क्योंकि देश काल और स्वभाव से व्यवहित पदार्थ भी सर्वज्ञ के ज्ञान द्वारा अभिगत होते हैं । इसलिये सर्वज्ञ के ज्ञान में आवरण संभावित नहीं है । जो पुरुष सामान्य ज्ञानवान है, उनका ज्ञान भी अवयव के माध्यम से अवयवी में-अंग द्वारा अंगी में प्रवृत्त होता है । इसलिये उसमें व्यवधान नहीं है । अवयवी अपने अवयव द्वारा व्यवहित-आवृत्त हो जाता है । यह बात न्याय संगत नहीं है । अज्ञान ही श्रेयस्कर है । तुम्हारे इस कथन में जो अज्ञान पद आया है उसमें नय पर्युदास है या प्रसज्य प्रतिषेध है । यदि उसे पर्युदास मानकर एक ज्ञान से भिन्न किसी अन्य ज्ञान को तुम अज्ञान कहते हो, तब तो तुमने उस अन्य ज्ञान को ही कल्याण का साधन स्वीकार किया । इससे अज्ञानवाद सिद्ध ही नहीं होता । यदि प्रसज्य । प्रतिषेध को स्वीकार कर ज्ञान के अभाव को तुम अज्ञान कहते हो तो वह ज्ञानाभाव अभाव रूप है-तुच्छ है उसका कोई अस्तित्व नहीं है, सर्वसामर्थ्य विरहित है । इसलिये वह किस प्रकार श्रेयस् का साधन हो सकता है । अज्ञान कल्याण का साधन है, ऐसा कहा जाय और इस वचन में प्रसज्य प्रतिषेध माना जाय तो अज्ञान के विपरीत ज्ञान कल्याण का साधन नहीं हैं-यह अर्थ होता है-ज्ञान से श्रेयस् प्राप्ति का प्रतिषेध होता है जो प्रत्यक्ष से विरुद्ध है क्योंकि सम्यक्ज्ञान-यथार्थ ज्ञान द्वारा पदार्थ के स्वरूप को अधिगत कर कार्य में प्रवृत्त होने वाला पुरुष अपना कार्य सिद्ध करता है। यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है । अतः ज्ञान को असत्य-अनर्थक नहीं कहा जा सकता ।
अज्ञानवादी किसी द्वारा अज्ञान तथा प्रमादवश उसके पैर से किसी के मस्तक का स्पर्श हो जाने पर भी अल्पदोष जानकर अज्ञान को श्रेयस्कर कहते हैं । यह बात प्रत्यक्ष रूप से ही सिद्धान्त विरोधी है । यहां अनुमान की प्रामाणिकता नहीं है, आवश्यकता नहीं है । अज्ञानवादी इस प्रकार धर्मोपदेश में अनिपुण-अकुशल है किन्तु अपने अनिपुण-अयोग्य शिष्यों को वैसे ही धर्म का उपदेश करते हैं । यहां छान्दस प्रयोग के रूप में बहुवचन के स्थान पर एक वचन का प्रयोग हुआ है । बौद्ध भी प्रायः अज्ञानवादियों में ही आते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि अविज्ञोपचित-अविज्ञ, अज्ञानी द्वारा उपचित-कृत कर्म बन्ध नहीं होता, उनका कथन है कि बालक, मत्त तथा सुप्त पुरुष विशद ज्ञानयुक्त नहीं होते । इसलिये उनके कर्मबन्ध नहीं होता ।
इन सभी वादियों को अज्ञानयुक्त समझना चाहिये । ये अज्ञान का आश्रय लिये, बिना विचार विमर्श बोलते रहते हैं । अत: मृषाभाषी हैं क्योंकि ज्ञान होने पर ही चिन्तन-विमर्शपूर्वक बोला जाता है। सत्यवाद-सत्यभाषण १. यह संकेत प्रथमगाथा के तीसरे चरण में आये हुए किरियं अकिरियं पदों के सम्बन्ध में है ।
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