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श्री समवसरणाध्ययन आदि तीनों ही घटित नहीं होते । सर्व शून्यत्व-सबको शून्य मानने के सिद्धान्त में या शून्यवाद में ये तीनों ही तत्त्व नहीं हैं । इस प्रकार वे मिश्रीभाव का-मिश्र पक्ष का आश्रय लेते हैं अर्थात् पदार्थ नहीं है-ऐसा भी प्रतिपादित करते हैं तथा उसका अस्तित्त्व भी मानते हैं ।
पदार्थ का निषेध करने के बावजूद वे उसकी सत्ता स्वीकार करतेहैं । बौद्ध भी इसी प्रकार मिश्रीभाव को उपगत है-परस्पर विपरीत मिश्रपक्ष को अपनाये हुए हैं । कहा है जिस सिद्धान्त में कोई गन्ता-गति करने वाला या जाने वाला ही नहीं है उसमें छः गतियां किस प्रकार प्रतिपादित की गई हैं । गमन करना गति कहलाताहै। यह श्रुति परम्परा से सुनी जाती हुई बात बौद्ध सिद्धान्त में किस प्रकार संगत हो सकती है । कर्म का तो अस्तित्त्व है ही नहीं किंतु उसकी फल निष्पत्ति होती है । यह कैसे संभव है । जब गति करने वाली आत्मा ही नहीं है तो उसकी छः गतियां कैसे घटित होंगी। बौद्धों ने जिंस ज्ञान संस्थान की कल्पना की है वह भी ज्ञान से भिन्न नहीं है-आरोपित है । प्रत्येक ज्ञान-क्षण क्षण में होने वाला ज्ञान, क्षण विनाशी है-अगले क्षण विनष्ट हो जाता है । अत: स्थिर नहीं है । अतएव क्रिया का अस्तित्व न होने के कारण नानागतियों का होना इनके मतानुसार कभी भी संगत नहीं है । बौद्ध अपने आगम में-शास्त्र में सभी कर्मों को अबंधन-बंधन रहित बतलाते हैं । किन्तु वे यह भी तो प्रतिपादित करते हैं कि बुद्ध ने पांच सौ बार जन्म लिया । यह भी कहते हैं कि मातापिता की हत्या कर, बुद्ध के शरीर से रुधिर निकाल कर, अर्हद् का वध कर उन्हें मारकर, धर्म स्तूप को छिन्न भिन्न कर-तोड़कर व्यक्ति अविचि नामक नर्क में जाता है । जब कर्म का बन्धन नहीं होता, सर्वशून्यजब सब कुछ शून्य है तब ऐसे शास्त्रों का प्रणयन अयुक्तिसंगत हो जाता है । यदि कर्म से बंधन नहीं होता तो जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु, रुग्णता, दुःख, उत्तम, श्रेष्ठ, मध्यम-बीच का, अधम-निम्न, यह सब किस प्रकार घटित हो सकते हैं । कर्म का भिन्न भिन्न प्रकार का विपाक-फल किस प्रकार होते हैं । इससे यह साबित होता है कि अवश्य ही जीव का अस्तित्व है, उसका कृत्वत्व है-वह कर्म करता है । कर्म का भी अपना अस्तित्त्व है । ऐसा होने के बावजूद वे जो यह कहतेहैं कि सभी सांसारिक पदार्थ गंधर्व नगर-आकाश में काल्पनिक नगर के दृश्य के समान असत्य है । वे माया, स्वप्न, मेघ, मृगतृष्णा, निहार-ओस की बूंद, चांदनी, अरातचक्रचिंगारियों के घेरे के समान केवल मात्र आभास हैं। इससे यह स्पष्ट है कि बौद्ध मिश्रीभाव को स्वीकार हैं अथवा वे कर्मों का नानाविध-भिन्न भिन्न प्रकार का फल मानकर अपने शून्यवाद के प्रतिकूल प्रतिपादन करते हैं । अतएव कहा है कि यदि तुम्हारा पक्ष शून्य है-अस्तित्त्व हीन है तो वह मेरे पक्ष का निवारण-निराकरण या खण्डन कैसे कर सकता है । यदि तुम उसे शून्य नहीं मानते तो तुम्हारे द्वारा स्वीकृत पक्ष मेरा ही तो हुआ । इस प्रकार बौद्ध पूर्वोक्त रीति से मिश्र भाव को ही स्वीकार किये हुए हैं । वे पदार्थों के नास्तित्त्व का प्रतिपादन करते हुए उससे विपरीत अस्तित्त्व का ही आख्यान करते हैं ।
सांख्य दर्शनवादी भी आत्मा को सर्वव्यापी मानते हुए उसे क्रिया रहित स्वीकार करते हैं और प्रकृति के वियोग से उसका मोक्ष स्वीकार करते हैं । यों वे स्वयं अपनी वाणी से ही आत्मा का बंध और मोक्ष मान लेते हैं । इस प्रकार आत्मा का बंध और मोक्ष होता है तब उन्हीं की वाणी से आत्मा की सक्रियता-क्रिया युक्तता उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार सांख्य दर्शनवादी भी सम्मिश्री भाव को स्वीकार किये हुए है क्योंकि क्रिया के बिना बंध और मोक्ष नहीं होते । 'वा' शब्द से यहां प्रकट किया गया है कि सांख्यवादी आत्मा को अक्रिय साबित करते हुए अपनी ही वाणी से उसे सक्रिय-क्रियावान प्रतिपादित करते हैं ।
लोकायतिक-चार्वाक मतवादी सब पदार्थों का अभाव-नास्तित्व स्वीकार करते हैं । तदनुसार वे क्रिया का अभाव बतलाते हैं । बौद्ध मतवादी सब पदार्थों का क्षणिकत्व एवं शून्यत्व स्वीकार कर क्रिया
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