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श्री समवसरणाध्ययनं इसलिये क्रिया निष्पन्न नहीं होती । तज्जनित कर्मबन्ध भी नहीं होता । इस प्रकार जो अक्रियावाद में विश्वास करते हैं वे नास्तिकवादी हैं । वे सब पदार्थों का अपलाप-खण्डन करते हुए कर्मबन्ध की आशंका से क्रिया का प्रतिषेध करते हैं । सांख्य दर्शन में विश्वास करने वाले आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं । अतः वे भी क्रिया को स्वीकार नहीं करते । वे अक्रियावादी हैं। लोकायतिक, बौद्ध तथा सांख्य मतवादी विचार-विमर्श बिना अज्ञानपूर्वक इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हैं । वे ऐसा निरूपित करते हैं कि हमारे सिद्धान्तों के अनुसार ही पदार्थों का स्वरूप यथार्थतः अवभाषित होता है-घटित होता है । ऐसा कहना अज्ञान पूर्ण है । इस प्रकार इस श्लोक के पूर्वार्द्ध को कौवे की आँखों के-गोलक-कनिनीका (काकाक्षि गोलक न्याय) के उदाहरण से अक्रियावादी के मत में आयोजित करना चाहिये । अब सूत्रकार अक्रियावादियों के अज्ञानमूलक उपक्रम को बताने हेतु कहते
सम्मिस्सभावं च गिरा गहीए, से मुम्मुई होइ अणाणुवाई । इमं दुपक्खं इममेगपक्खं, आहंसु छलायतणं च कम्मं ॥५॥ छाया - सम्मिश्रभावञ्च गिरा गृहीते, स मूकमूकोभवत्यननुवादी ।
इदं द्विपक्ष मिदमेकपक्ष माहुच्छलायतनञ्च कर्म ॥ अनुवाद - पहले जिनका वर्णन हुआ है वे मतवादी अपनी वाणी द्वारा स्वीकृत पदार्थों का निषेध करते हुए सम्मिश्रभाव को-पदार्थ की सत्ता तथा असत्ता दोनों को स्वीकार करते हैं । वे स्याद्वाद में विश्वास रखने वाले वादियों के वचनों का अनुवाद करने में-प्रतिउत्तर देने में असमर्थ होकर मूक-चुप हो जाते हैं । वे अपने वाद को प्रतिपक्ष रहित तथा दूसरों के वाद को प्रतिपक्ष सहित मानते हैं । वे स्याद्वादियों के सिद्धान्तों का खंडन करने हेतु छलपूर्ण वाणी का प्रयोग करते हैं ।
टीका - स्वकीयया गिरा-वाचा स्वाभ्युपगमेनैव 'गृहीते' तस्मिन्नर्थे नान्तरीयकतया वा समागते सति तस्याऽऽयातस्यार्थस्य गिरा प्रतिषेधं कुर्वाणाः 'सम्मिस्रीभावम्' अस्तित्वनास्तित्वाभ्युपगमं ते लोकायतिकादयः कर्वन्ति. वाशब्दात्प्रतिषेधे प्रतिपाद्येऽस्तित्वमेव प्रतिपादयन्ति. तथाहि-लोकायतिकास्तावत्स्वशिष्येभ्यो जीवाद्यभावप्रतिपादकं, शास्त्रं प्रतिपादयन्तो नान्तरीकतयाऽऽत्मानं कर्तारं कारणं च शास्त्रं कर्मतापन्नांश्च शिष्यानवश्यमभ्युपगच्छेयु, सर्वशून्यत्वे त्वस्य त्रितयस्याभावान्मिश्रीभावो व्यत्ययो वा । बौद्धा अपि मिश्रीभावमेवमुपगताः, तद्यथा -
"गन्ता चनास्ति कश्चिद्गतयः षड् बौद्धशासनेप्रोक्ताः गम्यत इति च गतिः स्याच्छुतिः कथं शोभना बौद्धी?॥१॥
तथा-'कर्म (च) नास्ति फलं चास्ती फलं चास्ती'त्यसतिचात्मनि कारके कथं षङ्गतयः? ज्ञानसन्तानस्यापि संतानि व्यतिरेकेण संवृतिमत्त्वात् क्षणस्य चास्थितत्वेन क्रियाऽभावान्न नानागतिसंभवः सर्वाण्यपि कर्माण्यबन्धनानि प्ररूपयन्ति स्वागमे, तथा पञ्च जातक शतानि च बुद्धस्योपदिशन्ति, तथा -
"माता पितरौ हत्वा बुद्ध शरीरे च रुधिरमुत्पाद्य । अर्हद्वधं च कृत्वा स्तूपं भित्त्वा च पञ्चैते ॥१॥
आवीचिनरकं यान्ति ।" एवमादिकस्यागमस्य सर्वशून्यत्वे प्रणयनमयुक्तिसंगतं स्यात्, तथा जातिजरामरणरोगशोकोत्तममध्यमाधमत्वानि च न स्युः, एष एव च नानाविधकर्मविपाको जीवास्तित्वं कर्तृत्वं कर्मवत्त्वं चावेदयति, तथा
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