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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् भासते-युज्यमानको भवतीति, तदेवं श्लोकपूर्वाद्धं काकाक्षिगोलकन्यायेना क्रियावादिमतेऽप्यायोज्यमिति ॥४॥ साम्प्रतमक्रिया वादिनामज्ञानविजृम्भितं दर्शयितुमाह -
टीकार्थ – संख्यान या वस्तु का ज्ञान संख्या कहा जाता है तथा सम्यक्-भली भांति वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान उपसंख्या है । उसके बिना ही अर्थात् पदार्थ के यथार्थ स्वरूप के परिज्ञान के बिना ही व्यामूढमति-आग्रहग्रस्त वैनयिक केवल विनय से स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं वे महामोह-अत्यन्त घोर मोह से आच्छन्न होकर ऐसा कहते हैं कि सबके प्रति विनय करने से ही हमें स्वर्ग और मोक्ष प्राप्तहो जायेगा किन्तु उनका यह कथम विचारशून्य है । ज्ञान और क्रिया दोनों के सद्भाव से ही होने से मोक्ष होता है । इस बात का परित्यागकर वे केवल एकमात्र विनय से ही स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं । उनकी यहां यह उक्ति है कि विनय समस्त कल्याण का भाजन-कारण है विनय तो सम्यक्दर्शन आदि के होने पर ही कल्याण का कारण होता है, केवल अकेला नहीं होता, जो सम्यक् दर्शन आदि से विरहित है, वह विनययुक्त होता हुआ भी सबके न्यत्कार-तिरस्कार का पात्र होता है । विवक्षित अर्थ-स्वर्ग या मोक्ष का अवस भासनप्राकट्य या प्राप्ति केवल बिनय से नहीं होती । अतः जो केवल विनय से ही स्वर्ग तथा मोक्ष का प्राप्त होना प्रतिपादित करते हैं, वे विनयवादी अज्ञान से आवृत्त हैं। उनको अभिप्रेत-अभिप्सित या इच्छित अर्थ की प्राप्ति नहीं होती।
विनयवादियों का वर्णन हो चुका है । सूत्रकार अक्रियावादियों के दर्शन का निराकरण करने हेतु गाथा का उत्तरार्द्ध कहते हैं-'लव' कर्म को कहा जाता है । उसकी जो शंका करते हैं अथवा उससे जो अपसृत होते हैं उन्हें लवावशङ्की कहा जाता है । लोकायतिक तथा बौद्ध आदि उस कोटि में आते हैं । उन दोनों के सिद्धान्तानुसार आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है । फिर उसकी क्रिया कहाँ से निष्पन्न होती है तथा उस क्रिया से जनित कर्म बंध भी कहां से हो सकता है । अतएव इनके सिद्धान्तानुसार वास्तव में बंध नहीं है, किन्तु आरोप मात्र है । उसी बात को प्रकट करते हुए कहतेहैं-जैसे लोक में कहा जाता है कि मैंने "मुष्ठिका बांध दी, मुष्ठिका खोल दी" वास्तव में रज्जु आदि से वह न बांधी जाती है और न खोली जाती है । केवल अंजलि को ही ग्रंथि की ज्यों बांधा खोला जाता है । वास्तव में न कुछ बांधा जाता है, न खोला जाता है । यह एक आरोपित व्यवहार है । इसी प्रकार संसार में बद्ध-बंधे हुए और मुक्त-छूटे हुए का व्यवहार समझना चाहिये। बौद्धों का यह सिद्धान्त है कि सभी पदार्थ क्षणिक हैं परन्तु क्षणिक पदार्थों में क्रिया का घटित होना संभावित नहीं हैं । अत: वे अक्रियावादी है । यद्यपि बौद्ध पांच स्कन्धों को स्वीकार न करते हैं किन्तु वह भी आरोपमात्र हैं, ऐसा वे मानते हैं, उनका पारमार्थिक रूप स्वीकार नहीं करते । उनका यह अभिमत है कि कोई भी पदार्थ विज्ञान द्वारा अपने स्वरूप को व्यक्त करने में सक्षम नहीं है अर्थात् विज्ञान द्वारा पदार्थों का स्वरूप परिज्ञात नहीं किया जा सकता क्योंकि अवयव युक्त पदार्थ तत्त्व एवं अतत्व दोनों भेदों द्वारा विचारित करने पर घटित नहीं होता, ज्ञात नहीं होता । इसी प्रकार अवयव भी परमाणु पर्यन्त विचार करने पर अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण ज्ञान गोचर नहीं बनता , ज्ञान का विषय नहीं होता । विज्ञान भी ज्ञेय के अभाव से अमूर्त की निराकारता के कारण स्वरूप धारण नहीं करता । कहा है-ज्यो ज्यो पदार्थों का चिन्तन किया जाता है । उनका विवेचन बढ़ता ही जाता है । इस प्रकार यदि पदार्थों को अपना विवेचन बढ़ाते जाना रूचिकर लगता है-अच्छा लगता तो हम क्या कर सकते हैं ? इस प्रकार के सिद्धान्त में आस्थाशील बौद्ध छिपे हुए रूप में लोकायतिक-नास्तिक हैं । बौद्धों के मत में अनागता क्षणों तथा अतीत क्षणों के साथ वर्तमान क्षणों की संगति घटित नहीं होती ।
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