Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

Previous | Next

Page 536
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् आपको हृदयंगम कराते हुए तरह तरह शास्त्रों का-सिद्धान्तों का निरूपण करते हैं । वे कहते हैं कि दान देने से बहुत बड़े भोग प्राप्त होते हैं । तथा शील का परिपालन करने से देव गति मिलती है । भावना से विमुक्ति प्राप्त होती है एवं तपश्चरण से सब सिद्ध हो जाता है । और भी वे कहते हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार ही भूत हैं । इनके अतिरिक्त सुख एवं दुःख का अनुभव-भोग करने वाला कोई आत्मा संज्ञक पदार्थ नहीं है । वे पदार्थ भी अविचारित रमणीय है-विचार न करने से ही-तात्त्विक गहराई में न जाने से ही सुन्दर प्रतीत होते हैं किन्तु पारमार्थिक रूप में ये नहीं है-असत्य है क्योंकि सभी पदार्थ स्वप्न, इन्द्रजाल मरुमरीचिका, दो चन्द्र आदि के सदृश प्रतिभास मात्र है-केवल प्रतिभाषित होते हैं । सभी पदार्थ क्षणिक है-निरात्मक है, आत्मरहित है । शून्यत्व की दृष्टि से ही मुक्ति प्राप्त होतीहै । उसी मुक्ति को प्राप्त करने हेतु शेष भावनाएं अनुभावित होती है । इस प्रकार आत्मा को क्रियाशून्य मानने वाले अक्रियावादी भिन्न भिन्न प्रकार से अपने अपने सिद्धान्तों का आख्यान करते हैं । ये वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते । अतएव जो इन सिद्धान्तों का अवलम्बन करते हैं, वे रहट की तरह अनन्त काल पर्यन्त संसार में चक्कर लगाते रहते हैं । लोकायतिकचार्वाक सिद्धान्तवादी सर्वशून्यत्व में विश्वास करते हैं किन्तु उसकी सिद्धि में कोई प्रमाण नहीं है । (जैनों द्वारा) कहा गया है-तत्त्व अर्थात् पदार्थ सब असत् है युक्ति बल से-तर्क द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है किन्तु वह युक्ति-तर्क भी असत् है तो किसके सहारे पदार्थों की असत्ता प्रमाणित की जा सकेगी। यदि तुम युक्ति को सत्य स्वीकार करते हो तो हमारी ही मान्यता साबित होती है क्योंकि जैसे युक्ति सत्य है, उसी की ज्यों समग्र पदार्थ सत्य है । चार्वाक मतवादी एकमात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण स्वीकार करते हैं किन्तु ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं है । इसका कारण यह है कि भूतकाल के साथ पिता का तथा भविष्य काल के साथ पुत्र का लोक में जो व्यवहार दृष्टिगोचर होताहै वह केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण स्वीकार करने पर सध नहीं सकता। क्योंकि अतीत और अनागत प्रत्यक्ष के विषय नहीं है । एकमात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण स्वीकार करने पर सभी जागतिक व्यवहार उच्छिन्न हो जायेंगे । अतः अनुमान आदि प्रमाण भी मानने योग्य हैं । उन प्रमाणों को स्वीकार करना अज्ञान जनित है । इसी तरह बौद्ध दर्शन में विश्वास करने वाले समग्र पदार्थों को क्षणिक स्वीकार करते हैं किन्तु पदार्थों का क्षणिकत्व मानने पर उनका अस्तित्त्व भी प्रमाणित नहीं हो सकता क्योंकि पदार्थ का क्रिया कारित्व के साथ संबंध है । जो क्रिया करता है वास्तव में वही सत् है । यदि पदार्थ क्षणिक-क्षणवर्ती हो तो वह क्रमशः क्रियाएं निष्पादित नहीं कर सकता क्योंकि क्रमबद्ध क्रियाकारिता होने से क्षणिकत्व नहीं टिक सकता। यदि एक ही क्षण में सब कार्यों का किया जाना माना जाय तो वे सबके सब एक ही क्षण में निष्पादित हो जाने चाहिये किन्तु ऐसा न दृष्ट है-न दिखाई देता है और न ईष्ट-अभिप्सित है । समग्र ज्ञानों का आधार एक गुणी आत्मा है । ऐसा माने बिना "मैंने पांचों ही इन्द्रिय विषयों को जाना" ऐसा संकलना प्रत्यय-संकलना से प्रतीत होने वाला ज्ञान भी नहीं हो सकता । यह पहले बताया जा चुका है । बौद्ध मतानुयायियों ने जो यह कहा कि 'दान देने से अत्याधिक भोगों की उपलब्धि होती है यह तो कथञ्चित-एक अपेक्षा से आर्हत् जैन भी मानते हैं । इसलिये ऐसी मान्यता हमारे लिये कोई बाधा जनक नहीं है। णोइच्चो उएइ ण अत्थमेति, ण चंदिमा वड्ढतिहायतीवा । सलिला ण संदंति ण वंति वाया, वंझो णियतो कसिणेहुलोए ॥७॥ छाया - नादिप्य उदेति नास्तमेति, न चन्द्रमा वर्धते हीयते वा । सलिलानि न स्यन्दन्ते, न पान्ति वाताः बन्योनियतः कृत्स्नोलोकः ।। 1508

Loading...

Page Navigation
1 ... 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658