Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 534
________________ - श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् का अभाव मानते हैं किन्तु जब उनसे यह जिज्ञासित किया जाता है कि सभी पदार्थों का अस्तित्व नहीं है तो तुम आगम की रचना क्यों और कैसे करते हो । तब वे अपनी वाणी से सम्मिश्रभाव स्वीकार कर लेते हैं । इसी प्रकार सांख्य मतवादी आत्मा को अक्रिय मानते हुए भी उसका बंध और मोक्ष प्रतिपादित कर उसे सक्रिय-क्रियावान अंगीकार कर लेते हैं । यों वे मिश्रभाव का आश्रय लेते हैं । इस प्रकार पूर्व वर्णित सभी अक्रियावाद में विश्वास करने वाले अन्य मतवादी अपने पक्ष को प्रमाणित करते हुए, उसके प्रतिकूल क्रियावाद को भी जो उनका पक्ष नहीं है, प्रमाणित कर देते हैं, यह बतलाया जा चुका हैं । यदि कोई स्याद्वादी-स्याद्वाद या अनेकान्तवाद में विश्वास करने वाला सम्यक् हेतु-कारण दृष्टान्त आदि द्वारा जब बौद्ध आदि के सिद्धान्तों का खण्डन करता है तब वे समुचित उत्तर देने में असमर्थ हो जाते हैं । असंबद्ध-जैसा मन में आये वैसा प्रलाप करते हुए अव्यक्तरूप में बड़बड़ाने लगते हैं, अथवा प्राकृत की शैली से छांदस प्रयोग होने के कारण इसका यह अभिप्राय जानना चाहिये । स्याद्वादी द्वारा पूर्वोक्त में पूछे जाने पर वे बौद्ध आदि मूक से विमूक हो जाते हैं-मूकमूक हो जाते हैं-बिल्कुल चुप हो जाते हैं-हक्के बक्के रह जाते हैं । सूत्रकार इसी का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि स्याद्वादी द्वारा प्रस्तुत सम्यक् हेतु आदि का अनुवाद नहीं कर सकते-समझ कर उत्तर नहीं दे सकते । वे व्याकुल होकर मौन हो जाते हैं-चुप्पी साध लेते हैं । स्यादवादी द्वारा बौद्ध आदि के प्रतिकूल हेतु व दृष्टान्त प्रस्तुत किये जाने पर उनका अनुवाद किये बिना ही-प्रति उत्तर दिये बिना ही अपने सिद्धान्त का मण्डन करने लगते हैं । वे कहने लगते हैं कि हमारा दर्शन विरुद्ध पक्ष से विवर्जित है । वह एकमात्र पक्ष रूप है । एवं परस्पर अविरुद्ध अर्थाभिदायी होने के कारणपरस्पर विरुद्ध अर्थ न बताने के कारण वह प्रतिबाधा रहित है-पूर्वापर विरोध रहित है । उनका यह कहना यथार्थ नहीं है । यह पहले कहा जा चुका है । (जैन मतवादी कहते हैं) हमारा दर्शन द्विपक्ष-दो पक्ष युक्त है। वह सप्रतिपक्ष है. अनेकान्तिक है-अनेकान्तवाद पर टिका हआ है। पर्वापर विरुद्ध अर्थ का जो अभिधान करता है उसे विरोधी वचन कहा जाता है । ऐसे विरोधी अविरोधी-ऐसे दोनों वचनों का इसमें आपेक्षिक दृष्टि से स्थान है, यह पहले कहा जा चुका है । अथवा यों एक अन्य प्रकार से भी हमारा दर्शन दो पक्ष युक्त है। हमारा दर्शन कर्मबंध व निर्जरण की दृष्टि से दो पक्ष युक्त है । जैसे जीव अपने कर्म का फल, चोर, पर स्त्रीगामी आदि के समान इस लोक में और परलोक में-दोनों ही लोक में प्राप्त करता है । चोर एवं परस्त्री गामी के हाथ-पैर, नाक आदि का छेदन किया जाता है जिससे वे कष्ट पाते हैं जो मानों उनके कर्म का प्रभाव पुष्पवत है और परलोक में वे नारकीय यातनाएं झेलते हैं जो उनके कर्मों का विपाक फल के समान है जैसे इन कर्मों के फल दोनों लोकों में भुगतने पड़ते हैं। उसी तरह अन्य शुभ-पुण्य, अशुभ-पाप भी दोनों लोकों में ही भुगतने पड़ते हैं । जैन दर्शन ऐसी मान्यता के कारण द्विपक्ष युक्त है किन्तु बौद्ध आदि एक पक्षीय है । उनका कथन है कि कर्म का फल इसी जन्म में प्राप्त होता है, दूसरे में नहीं । 'प्राणी प्राणि ज्ञानं' के रूप में पहले कहा जा चुका है । वे कहते हैं कि अवज्ञोपचित, परिज्ञोपचित, ई-पथ, स्वप्नान्तिक, कर्मों का बंध केवल स्पर्श मात्र है । स्पर्शमात्र बन्धन का परलोक में कोई फल नहीं होता-इसलिये वे एक पक्षीय हैं । स्याद्वाद में आस्थावान पुरुष जब उनके सिद्धान्त में दोष दिखलाने लगता है तब वे पूर्णवर्णित नीति-पद्धति का अवलम्बन लेकर अपने दर्शन को ही उत्तम-श्रेष्ठ बताते हैं और स्याद्वादी द्वारा प्रस्तुत सम्यक् हेतु में छल प्रयोग करते हैं । उदाहरणार्थ देवदत्त का कम्बल नव-नवीन है । इस अभिप्राय से 'नवकम्बलोदेवदत्तः' यह वाक्य कहा गया है । नव शब्द द्वयर्थक है-नवीन का भी द्योतक है और नौ का भी । इसमें आये 'नव' शब्द का संख्यापरक नौ अर्थ कर 506

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