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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् विचार पूर्वक ही होता है-वह विचार पर ही निर्भर है । ज्ञान को अस्वीकार करने के कारण ये अनुचिन्तन पूर्वक नहीं बोलते । अनुचिन्तन पूर्वक न बोलने के कारण वे मिथ्यावादी हैं, यह प्रमाणित होता है ।
सच्चं असच्चं इति चिंतयंता, असाहु साहुत्ति उदाहरंता। । जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुट्ठावि भावं विणइंसु णाम ॥३॥ छाया - सत्यमसत्यमिति चिन्तयित्वा, असाधु साध्वित्युदाहरन्तः ।
य इमे जनाः वैनयिका अनेके पृष्टा अपि भावं व्यनैषुर्नाम ॥ अनुवाद - वैनयिक-विनयवादी सत्य को असत्य तथा साधु को असाधु बतलाते हैं । पूछने पर वे केवल विनय को ही मोक्ष का मार्ग प्रतिपादित करते हैं ।
___टीका - साम्प्रतं वैनयिकवाद निराचिकीर्षुः प्रक्रमते-सद्भयो हितं 'सत्यं' परमार्थो यथावस्थित पदार्थ निरूपणं वा मोक्षो वा संयमः सत्यं तदसत्यम् 'इति' एवं 'विचिन्तयन्तो' मन्यमानाः, एवमसत्यमपि सत्यमिति मन्यमानाः, तथाहि-सम्यग्दर्शनचारित्राख्यो मोक्षमार्गः सत्यस्तमसत्यत्वेन चिन्तयन्तो विनयादेव मोक्ष इत्येतदसत्यमपि सत्यत्वेन मन्यमानाः, तथा असाधुमप्यविशिष्टकर्मकारिणं वन्दनादिकया विनयप्रतिपत्त्या साधुम् ‘इति' एवम् 'उदाहरन्तः प्रतिपादयन्तो न सम्यग्यथावस्थितधर्मस्य परीक्षकाः, युक्तिविकलं विनयादेव धर्म इत्येवमम्युपगमात्, क एते इत्येतदाह-ये 'इमे' बुद्धया प्रत्यक्षासन्नीकृता 'जनाइव' प्राकृतपुरुषा इव जना विनयेन चरन्ति वैनयिकाविनयादेव केवलात्स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्येवंवादिनः 'अनेके बहवो द्वात्रिंशद्भेदभिन्नत्वात्तेषां, ते च विनयचारिणः केन चिद्धर्मार्थिना पृष्टाःसन्तोऽपिशब्दादपृष्टा वा भावं' परमार्थं यथार्थोपलब्धं स्वाभिप्रायं वा विनयादेव स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्येवं 'व्यनैषुः' विनीतवन्तः सर्वदा सर्वस्य सर्वसिद्धये विनयं ग्राहितवन्तः, नामशब्दः संभावनायां, संभाव्यत एव विनयात्स्वकार्यसिद्धिरिति, तदुक्तम्-"तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनय' इति ॥३॥
टीकार्थ - सूत्रकार वैनयिकवाद का निराकरण करने का उपक्रम करते हैं-जो सब का हितप्रद होता है-सबके लिये श्रेयस्कर होता है, परमार्थ-वस्तु के यथावस्थित स्वरूप का निरूपण-प्रतिपादन होता है उसे सत्य कहा जाता है। अथवा मोक्ष या संयम को सत्य कहा जाता है । विनयवादी उस सत्य को असत्य तथा असत्य को सत्य मानते हैं । सम्यक्दर्शन तथा चारित्र मोक्ष का मार्ग है, विनयवादी उसे असत्य कहते हैं । केवल विनय से मोक्ष प्राप्त नहीं होता पर वे उसी से मोक्ष मानते हुए असत्य को सत्य के रूप में स्थापित करते हैं । जो पुरुष विशिष्ट कर्म-साधु जीवनोचित क्रियाशील नहीं है-असाधु है, उसे भी वे केवल वंदन आदि विनययुक्त क्रिया करने मात्र से साधु स्वीकार करते हैं । वे धर्म के यथार्थतः परीक्षक नहीं है क्योंकि वे केवल विनय से ही धर्म की निष्पत्ति मानते हैं जो युक्ति युक्त नहीं है । वे कौन हैं ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं-जो साधारणतः बुद्धि प्रत्यक्ष है-जानकारी में आते हैं-ऐसे सामान्य जनों के समान विनयवादी है, केवल विनय को अपनाए फिरते हैं, उसी से स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त होना कहते हैं उनके बत्तीस भेद माने गये हैं । यों वे अनेक प्रकार के हैं । जब कोई धर्मार्थी-धर्म जिज्ञासु पुरुष उनसे पूछता है, अपि शब्द के संकेत के अनुसार नहीं भी पूछता हैं । तब वे अपना भाव-अभिप्राय परमार्थ बतलाते हुए कहते हैं कि केवल विनय द्वारा ही वैनयिकों ने-विनयवादियों ने स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति बतलाई है । उन्होंने सबको सर्वसिद्धि हेतु विनय
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