Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 526
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् हैं-जो तुम यह बात कहते हो वह युक्तिसंगत नहीं है । तुमने जो कहा है सर्वज्ञ का अस्तित्त्व हो तो भी वह असर्वज्ञ-अल्पज्ञ द्वारा जाना नहीं जा सकता । तुम्हारा यह कथन युक्तिसंगत नहीं है । यद्यपि दूसरे की चित्तवृत्ति को नहीं जाना जा सकता । सराग-राग सहित पुरुष वीतराग-राग रहित की ज्यों, वीतराग सराग की ज्यों चेष्टा करते हुए पाये जाते हैं । इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सर्वज्ञ की उपलब्धि नहीं होती किन्तु संभव तथा अनुमान प्रमाण के होने से एवं बाधक प्रमाण के अविद्यमान होने के कारण सर्वज्ञ का अस्तित्व विलुप्त नहीं हो सकता । संभव और अनुमान इस प्रकार है । व्याकरण आदि शास्त्रों के अभ्यास से संस्कारयुक्त बुद्धि ज्ञेय पदार्थों को अतिशय के साथ देखती है । ऐसा देखा जाता है-अज्ञानी की अपेक्षा व्याकरण का अध्ययन किया हुआ मनुष्य अधिक समझता है । उसी प्रकार विशेष अभ्यास-ध्यान आदि की साधना के परिणाम स्वरूप विशिष्ट ज्ञानवानसमस्त पदार्थों का ज्ञाता कोई सर्वज्ञ पुरुष ही हो सकता है । सर्वज्ञ नहीं हो सकता इस प्रकार का-सर्वज्ञत्व का कोई बाधक प्रमाण नहीं है क्योंकि अल्पज्ञ पुरुष प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सर्वज्ञत्व का अभाव सिद्ध करने में सक्षम नहीं होता क्योंकि उसका ज्ञान स्वल्प है । वह सर्वज्ञ के ज्ञान व ज्ञेय विज्ञान से विरहित है। यदि वह अपने ज्ञान द्वारा सर्वज्ञ के ज्ञान व ज्ञेय को जानता है तो वह स्वयं सर्वज्ञ सिद्ध हो जाता है । फिर सर्वज्ञ न होने की बात ही कहां रही अनुमान प्रमाण से भी सर्वज्ञ का प्रतिरोध नहीं हो सकता । क्योंकि सर्वज्ञ के अभाव के साथ कोई अव्यभिचारी-निर्दोष हेतु नहीं है । उपमान प्रमाण द्वारा भी सर्वज्ञ का अभाव प्रमाणित नहीं किया जा सकता क्योंकि उपमान का आधार सदृशता-समानता है । उसी के साथ उपमान की प्रवृत्ति होती है किन्तु सर्वज्ञ के अभाव के साथ किसी का सादृश्य-समानता नहीं है । अतः पहले जैसा कहा गया है उपमान प्रमाण द्वारा सर्वज्ञ का अभाव साबित नहीं किया जा सकता । अर्था पत्ति प्रमाण द्वारा भी सर्वज्ञ का अभाव साबित नहीं होता क्योंकि अर्थापत्ति की प्रवृत्ति प्रत्यक्ष आदि पूर्वक्तता से ही होती है, अर्थापत्ति प्रत्यक्ष आदि को आधार मान कर ही की जाती है । अतः प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से जब सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं होता तो अापत्ति के द्वारा भी वह प्रमाणित नहीं हो सकता। आगम प्रमाण द्वारा भी सर्वज्ञ का अभाव-नास्तित्व घटित नहीं होता क्योंकि आगम सर्वज्ञ का सद्भाव या अस्तित्व प्रतिपादित करते हैं । यदि ऐसा कहो कि प्रत्यक्ष ज्ञान, उपमान, अर्थापत्ति तथा संभव इन पांचों प्रमाणों से सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, अतः यह निर्णीत होता है कि कोई सर्वज्ञ नहीं है। यह कहना यथार्थ नहीं है क्योंकि सब स्थानों तथा सब समयों में सर्वज्ञ का बोध कराने वाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । ऐसा एक अल्पज्ञ पुरुष कहने का अधिकारी नहीं है क्योंकि देश की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से जो पुरुष अत्यन्त विप्रपृष्ठ-दूर है अल्पज्ञ पुरुष उन्हें नहीं जान सकता। यदि वह उन्हें जान पाता हो तो खुद सर्वज्ञ सिद्ध हो जाता है तब यह कैसे कहा जा सकताहै कि कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं है । स्थूलदर्शी-स्थूल पदार्थों को देखने वाले पुरुष का विज्ञान सर्वज्ञ तक नहीं पहुँच पाता, स्थूलदृष्टा व्यक्ति का ज्ञान व्यापक नहीं होता। इस कारण उस द्वारा सर्वज्ञ का अभाव नहीं बतलाया जा सकता । यदि कोई पदार्थ अव्यापक होने के कारण किसी भन्य पदार्थ के सन्निकट नहीं पहुँच सके तो उस पदार्थ का अभाव नहीं कहा जा सकता यदि यों कहा जाय कि जिस ज्ञान द्वारा अन्य पदार्थ परिज्ञात होते हैं-जाने जाते हैं, उससे सर्वज्ञ का परिज्ञान नहीं होता, अतः सर्वज्ञ नहीं है यह साबित होता है । यह कहना यथार्थ नहीं है क्योंकि जिस ज्ञान द्वारा अन्य पदार्थ जाने जाते हैं, उस ज्ञान से सर्वज्ञ भी जाना जाये ऐसी कोई नियामकता नहीं है। अतः सर्वज्ञ के अस्तित्व में बाधा उपस्थित करने वाला कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता तथा उसे सिद्ध करने वाले संभव अनुमान प्रमाण प्राप्त है । अतः सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध होता है । सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत-प्ररूपित आगम को अंगीकार करने से मतभेद-भिन्न भिन्न मन्तव्यों के रूप में किसी भी दोष का उद्भव नहीं होता । सर्वज्ञ प्रणीत आगम -498)

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