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श्री समवसरणाध्ययन आत्मा अंगूठे के पर्व-पोर के समान है । कई उसे श्यामाक जाति के तंदुल-चावल के जितना मानते हैं । कई उसे मूर्त और कई अमूर्त कहतेहैं । कई कहते हैं कि आत्मा हृदय के मध्य में विद्यमान है । कइयों का कथन है कि ललाट में अवस्थित है । इस प्रकार समस्त पदार्थों में पुरःसर-प्रमुखतम आत्मा के सम्बन्ध में भी ज्ञानवादियों की एक वाद्यता-एक सा वचन प्रतिपादन नहीं है । जगत में कोई अतिशय ज्ञानी-असाधारण ज्ञानवान भी नहीं है जिसका वाक्य प्रमाणभूत माना जाये । यदि कोई अतिशय ज्ञानी हैं भी तो वह अल्पज्ञ व्यक्ति द्वारा जाना नहीं जा सकता क्योंकि जो असर्वज्ञ है वह सर्वज्ञ को जान नहीं सकता-ऐसा कहा जाता है अर्थात् सर्वज्ञ हों तो भी जिसको सर्वज्ञ के तुल्य उत्कृष्ट-उच्च ज्ञान नहीं है, जो वैसे ज्ञानज्ञेय विज्ञान से शून्य है, वह सर्वज्ञ को कैसे जान सकता है । वह असर्वज्ञ, सर्वज्ञों को जानने का उपाय भी तो नहीं जान सकता । अतः उपाय द्वारा सर्वज्ञ को जानने में इतरेतराश्रय-अन्यान्यश्रय दोष आने से सर्वज्ञ का ज्ञान संभव नहीं है । जैसे सर्वज्ञ को जानने का उपाय परिज्ञात होने से वह जाना जा सकताहै तथा स्वयं सर्वज्ञ होने की स्थिति में ही सर्वज्ञ को जानने का उपाय जाना जा सकता है । अत: उपाय ज्ञान व सर्वज्ञ ज्ञान में इतरेतराश्रय होने के कारण उपाय द्वारा सर्वज्ञ का ज्ञान होना सर्वथा असंभव है । ज्ञान ज्ञेय-जानने योग्य पदार्थ के स्वरूप को पूर्णतः नहीं बता सकता ।
जो पदार्थ उपलब्ध होता है-देखा जा सकता है, उसका बीच का भाग तथा पीछे का भाग भी है किन्तु वह दिखाई नहीं देता क्योंकि बीच का भाग व पीछे का भाग सामने के भाग से व्यवहित-व्यवधानयक्त होते हैं जो सामने का भाग दृष्टिगोचर होता है उसके भी बीच का भाग व पीछे के भाग की परिकल्पना करने पर तथा फिर उनके सन्निकटवर्ती भागों में भी ये तीनों परिकल्पनाएं करते जाने पर अन्ततः वे कल्पनाएं परमाणु में जाकर समाप्त होगी परमाणु स्वभावतः विप्रष्ठ-अति दूरवर्ती है । अतः असर्वज्ञ पुरुष को उसका ज्ञान नहीं हो सकता । उसका ज्ञान न होने पर पदार्थ का यथार्थ ज्ञान भी उपलब्ध नहीं होता । इस प्रकार सर्वज्ञ पुरुष के अभाव से तथा असर्वज्ञ पुरुष को पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान न होने से एवं सभी ज्ञानवादियों के सिद्धान्त के अनुसार पदार्थों का आपस में विपरीत स्वरूप माने जाने से और ज्यों-ज्यों अधिक ज्ञान होता है त्यों-त्यों प्रमाद होने पर अधिक दोष समझे जाने से अज्ञान ही श्रेयस्कर है । यदि कोई अज्ञानी ज्ञान न होने से किसी के मस्तक परपैर से आघात करता है तो वह उतना बड़ा दोष भागी नहीं माना जाता क्योंकि उसका चित्त विशुद्ध है । इस प्रकार प्रतिपादित करने वाले अज्ञानवादी असंबद्ध है-सम्यक्ज्ञान से रहित है । वे चित्तविप्लुतिसंशय सन्देह में ग्रस्त है । वे जो ये आक्षेप करते हैं कि ज्ञानवादी आपस में एक दूसरे के प्रतिकूल सिद्धान्त बताने के कारण सही नहीं है । यह ठीक है क्योंकि वे एक दूसरे के विपरीत सिद्धान्त प्रतिपादित करने वाले लोग उन आगमों में विश्वास करते हैं जो अंसर्वज्ञों के हैं-असर्वज्ञों द्वारा प्रणीत हैं । वे जो परस्पर विपरीत सिद्धान्त प्रकट करते हैं । उससे समस्त सिद्धान्त बाधित नहीं होते क्योंकि सर्वज्ञ द्वारा प्रतिवेदित आगम में विश्वास करने वाले वादियों के वचनों में कहीं भी आपस में प्रतिकूलता नहीं आती क्योंकि ऐसा हुए बिना सर्वज्ञता सिद्ध ही नहीं होती। इसका स्पष्टीकरण यों है-ज्ञान पर आया हुआ आवरण सम्पूर्ण रूप से क्षीण हो जाने से राग-द्वेष तथा मोह का, जो अयथार्थ भाषण के कारण है, का अभाव होने से सर्वज्ञ का वचन सत्य है । उसे अयथार्थ-मिथ्या नहीं कह सकते । सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत आगमों में आस्थाशील पुरुष आपस में विपरीतप्रतिकूल अर्थ-अभिप्राय प्रकट नहीं करते यह स्पष्ट है ।
अज्ञानवादी की ओर से शंका उठाते हुए कहते हैं यदि किसी सर्वज्ञ का अस्तित्व हो तब तो यह बात संभव हो सकती है पर वैसा नहीं है जो पहले कहा जा चुका है । इसके उत्तर में समाधान देते हुए कहते
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