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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् वर्धमानस्वामिना 'प्रवेदितं' प्रणीतं 'तरेत्' लङ्घयेद्भावस्रोतः संसारपर्यटनस्वभावं, तदेव विशिनष्टि-'महाघोरं' दुरुत्तरत्वान्महाभयानकं , तथाहितदन्तर्वर्तिनो जन्तवो. गर्भाद्गर्भ जन्मतो जन्म मरणान्मरणं दुःखाद्दुः खमित्येवमरघट्टघटीन्यायेनानुभवन्तोऽनन्तमपि कालमासते । तदेवं काश्यप प्रणीत धर्मादानेन सता आत्मनस्त्राणंनदकादिरक्षा तस्मै आत्मत्राणाय परिः-समन्ता (हजे) त्परिव्रजेत्संयमानुष्ठायी भवेदित्यर्थः क्वचित्पश्चार्धस्यान्यथा पाठः-'कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए' "भिक्षुः' साधुः ग्लानस्य वैयावृत्यम् 'अग्लानः' अपरिश्रान्तः कुर्यात्सम्यक्समाधिनाग्लानस्य वा समाधिमुत्पादयन्निति ॥३२॥ कथं संयमानुष्ठाने परिव्रजे दित्याह -
___टीकार्थ – मिथ्यादृष्टि अनार्य,-बौद्ध आदि परमतवादी इस संसार सागर में सर्वथा विनिमग्न होते हुए अत्यन्त दुःख प्राप्त करते हैं । अतः सूत्रकार उपदिष्ट करते हैं । यहां प्रयुक्त 'इदं' शब्द प्रत्यक्ष एवं आसन्नवर्ती पदार्थ का बोधक है । इसके अनुसार जिसका स्वरूप वक्ष्यमाण है-आगे कहा जाने वाला है, जो समग्र लोक में प्रकट-प्रसिद्ध है तथा जो जीव को दुर्गति में जाने से रोकता है शोभन-उत्तम गति में धारण करता है-ले जाता है वह श्रुत एवं चारित्रमूलक धर्म सबमें श्रेष्ठ है । यहां 'च' शब्द पुनः के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । वह पहले बतलाये गये शाक्य धर्म से इसके श्रुत और चारित्र की विशिष्टता सूचित करता है । सौद्धोदनि-बुद्ध द्वारा प्रणीत-प्ररूपित धर्म को ग्रहण करने वाले, मानने वाले अत्यन्त भय को प्राप्त होतेहैं किन्तु काश्यप गोत्रीय श्री वर्धमान स्वामी द्वारा प्रवेदित-प्रज्ञापित धर्म को अंगीकार कर भाव स्रोतः स्वरूप संसार समुद्र को पार कर जाते हैं । अब उसकी-संसार की विशेषता बताते हुए कहते हैं वह संसार महाघोर-दुरुत्तर होने से अत्यन्त भयानक है । उसके अन्तर्वर्ती जन्तु एक गर्भ से दूसरे गर्भ में, एक जन्म से दूसरे जन्म में, एक मरण से दूसरे मरण में तथा एक दुःख से दूसरे दुःख में रहट पर लगी घटिकाओं की तरह घूमते हुए अनन्त काल दुःख प्राप्त करते हैं । इस संसार सागर से रक्षा पाने हेतु जीव को चाहिये कि वह भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित धर्म को स्वीकार कर संयम का अनुष्ठान करे । कहीं-कहींगाथा के उत्तरार्द्ध का पाठ 'कुज्जा भिक्ख गिलाणस्स अगिलाए समाहिए' यों प्राप्त होता है अर्थात् साधु ग्लान-रूग्ण साधु का अग्लानभाव से अपरिश्रान्त रूप में भली भांति समाधिपूर्वक सेवा करे । रूग्ण के मन में समाधि शांति उत्पन्न करे ।
साधु संयम के परिपालन में किस प्रकार गतिशील रहे, यह बतलाते हुए शास्त्रकार कहते हैं
विरए गामधम्मेहिं, जे केई जगई जगा । तेसिं अत्तुवमायाए, थामं कुव्वं परिव्वए ॥३३॥ छाया - विरतोग्रामधर्मेभ्यः, ये केचिद् जगति जगाः ।
तेषामात्मोपमया, स्थामं कुर्वन् परिव्रजेत् ॥ अनुवाद - साधु ग्राम धर्मों-शब्दादि इन्द्रिय विषयों से विरत होकर जागतिक प्राणियों को आत्मोपमअपने सद्दश समझता हुआ पराक्रम पूर्वक संयम का परिपालन करे ।
टीका - ग्रामधर्मः शब्दादयो विषयास्तेभ्यो विरता मनोज्ञेतरेष्वरक्तद्विष्टाः सन्त्येके केचन 'जगति' पृथिव्यां संसारोदरे 'जगा' इति जन्तवो जीवितार्थिनस्तेषां दुःख द्विषामात्मोपमया दुःखमनुत्पादयन् तद्रक्षणे सामर्थ्य कुर्यात् कुर्वश्च संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति ॥३३॥
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