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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीका - 'अथ' भावमार्गप्रतिपत्त्यनन्तरं साधुं प्रतिपन्नव्रतं सन्तं स्पर्शा:-परीषहोपसर्गरूपाः 'उच्चावचा' गुरुलघवो नानारूपा वा 'स्पृशेयुः' अभिद्रवेयुः, स च साधुस्तैरभिद्रुतः संसारस्वभावमपेक्षमाणः कर्म निर्जरां च न तैरनुकूलप्रतिकूलैर्विहन्यात्, नैव संयमानुष्ठानान्मनागपि विचलेत्, किमिव ?, महावैतेनेव महागिरिःमेरुरिति । परीषहोपसर्गजयश्चाभ्यासक्रमेण विधेयः, अभ्यासवशेन हि दुष्करमपि सुकरं भवति, अत्र च दृष्टान्तः, तद्यथा-कश्चिद्गोपस्तदहर्जातं तर्णकमुत्क्षिप्य गवान्तिकं नयत्यानयति च ततोऽसावनेनैव च क्रमेण प्रत्यहं प्रवर्द्धमानमपि वत्समुत्क्षिपन्नभ्यासवशाविहायनं त्रिहायणमप्युत्क्षिपति, एवं साधुरप्यभ्यासात् शनैः शनैः परिपहोपसर्गजयं विधत्त इति ॥३७॥
टीकार्थ - भावमार्ग की प्रतिपत्ति-स्वीकरण के अनन्तर व्रत प्रतिपन्न-व्रतधारक साधु भिन्न भिन्न प्रकार के छोटे बड़े परीषहों एवं उपसर्गों से अभिद्रूप हो-बाधित हो, तो वह संसार का स्वभाव तथा कर्म निर्जरा का चिन्तन करता हुआ उन्हें सहन करे । वह अनुकूल-प्रिय तथा प्रतिकूल-अप्रिय उपसर्गों द्वारा संयम के अनुष्ठान में जरा भी विचलित न बने । किसकी ज्यों ? महावात-प्रबल वायु से जिस प्रकार महागिरि-मेरू पर्वत विचलित नहीं होता है, वैसे ही वह अविचलित रहे । साधु परीषहों और उपसर्गों को जीतने का क्रमशः अभ्यास करता जाए क्योंकि दुष्कर-कठिन कार्य भी अभ्यास द्वारा सुकर-सरल हो जाता है । यहाँ एक दृष्टान्त उपस्थित किया जाता है । कोई ग्वाला उसी दिन जन्मे हुए गाय के बछड़े को उठाकर गाय के समीप ले जाता है, वापस ले आता है-यों वह इसी क्रम से हर रोज बढ़ते जाते बछड़े को निरन्तर गतिशील अभ्यास द्वारा उसके दो वर्ष के एवं आगे तीन वर्ष तक के होने पर भी लाना, ले जाना चालू रखता है । इसी प्रकार साधु भी धीरे धीरे अभ्यासरत रहता हुआ परीषहों एवं उपसर्गों को जीत लेता है ।
संवुडे से महापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे । निव्वुडे कालमाकंखी, एवं (यं) केवलिणो मयं ॥३८॥त्तिबेमि॥ छाया - संवृत्तः स महाप्राज्ञः, धीरो दत्तैषणां चरेत् ।
निवृतः कालमाकाङ्क्ष देवं केवलिनो मतम् ॥इति ब्रवीमि॥ अनुवाद - संवृत-संवरयुक्त महाप्राज्ञ-अत्यन्त विवेकशील, धैर्यशील साधु अन्य द्वारा दिया हुआ एषणीयकल्पनीय आहार आदि ग्रहण करे । वह निर्वृत्त-प्रशांतभाव युक्त होकर मरण काल की आकांक्षा करे । यह केवलज्ञानी भगवान का अभिमत-मन्तव्य या उपदेश है ।
टीका - साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिहीर्षुरुक्तशेषमधिकृत्याह-स साधुः एवं संवृताश्रवद्वारतया संवरसंवृतो महती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञः-सम्यग्दर्शनज्ञानवान्, तथा धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धीरः परीषहोपसर्गाक्षोभ्यो वा स एवंभूतः सन् परेण दत्ते सत्याहारादिके एषणां चरेत्रिविधयाप्येषणया युक्तः सन् संयममनुपालयेत्, तथा निर्वृत 'इव निर्वृतः कषायोपशमाच्छीतीभूतः 'कालं' मृत्युकालं यावदभिकाङ्क्षत् ‘एतत्' यत् मया प्राक् प्रतिपादितं तत् 'केवलिनः' सर्वज्ञस्य तीर्थकृतो मतं । एतच्च जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य सुधर्मस्वाम्याह । तदेतद्यत्वया मार्गस्वरूपं प्रश्रितं तन्मया न स्वमनीषिकया कथितं, किं तहिं ?, केवलिनो मतमेतदित्येवं भवता ग्राह्यं । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥३८॥
॥ इति मार्गाख्यमेकादशमध्ययनं समाप्तम् ॥
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