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श्री मार्गाध्ययनं टीकार्थ - सूत्रकार अब इस अध्ययन को परिसमाप्त करने हेतु शेष कथ्य बतलाते हैं-आश्रवद्वारों का अवरोध कर संवरयुक्त महाप्राज्ञ-सम्यक्दर्शन एवं ज्ञान समन्वित धीर-मेधाशील, धैर्यशील अथवा परीषहों एवं उपसर्गों से अक्षुब्ध-घबराहट रहित साधु अन्य द्वारा दिया हुआ एषणीय आहार ही स्वीकार करे । वह विविध एषणाओं से युक्त होकर संयम का परिपालन करे । कषायों के उपशान्त हो जाने से शांत बना हुआ वह साधु मरण काल की अभिकांक्षा करे । मैंने जो यह पहले कहा है वही केवली भगवान का अभिमत है । यह श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी को अभिहित करते हैं । तुमने जो मुझसे मार्ग का स्वरूप पूछा उसका उत्तर मैंने अपनी मनीषा-मन:कल्पना द्वारा नहीं दिया है-अपनी ओर से नहीं कहा है किन्तु केवली भगवान के मत-अभिमत का कथन कियाहै । इसे ग्रहण करो । यहां इति शब्द परिसमाप्ति के अर्थ में है । ब्रवीमि-बोलता हूं-पूर्ववत् है ।
मार्ग नामक ग्यारहवाँ अध्ययन समाप्त हुआ।
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