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श्री मार्गाध्ययन अनुवाद - अतीत में जो तीर्थंकर हो चुके हैं तथा अनागत-भविष्य में जो होंगे उन सबका शांति ही प्रतिष्ठान-आधार या पृष्ठभूमि है । जैसे यह जगत प्राणियों का आधार है ।
टीका - अथैवंभूतं भावमार्ग किं वर्धमानस्वाम्येवोपदिष्टवान् उतान्येऽपीत्येत दाशङ्कायाह ये बुद्धाः -तीर्थकृतोऽतीतेऽनादिके कालेऽनन्ताः समतिक्रान्ताः ते सर्वेऽप्येवंभूतं भावमार्गमुपन्यस्तवन्तः, तथा ये चानागता भविष्यदनन्तकालभाविनोऽनन्ता एव तेऽप्येव मेवोपन्यसिष्यन्ति, च शब्दा द्वर्तमान काल भाविनश्च संख्येया इति। न केवलमुपन्यस्तवन्तोऽनुष्ठित वंतश्चेत्येतद्दर्शयति शमनं शान्तिः-भावमार्गस्तेषामतीतानागतवर्तमानकालभाविनां बुद्धानां प्रतिष्ठानम्-आधारो बुद्धत्वस्यान्यथानुपपत्तेः, यदिवा शान्तिः-मोक्षः स तेषा प्रतिष्ठानम्-आधारः, ततस्तदवाप्तिश्च भावमार्गमन्तरेण न भवतीत्यतस्ते सर्वेऽप्येनं भावमार्गमुक्तवन्तोऽनुष्ठितवन्तश्च (इति) गम्यते । शान्तिप्रतिष्ठानत्वे दृष्टान्तमाह-'भूतानां' स्थावरजङ्गमानां यथा 'जगती' त्रिलोकीप्रतिष्ठानं एवं ते सर्वेऽपि बुद्धाः शान्ति प्रतिष्ठाना इति ॥३६॥ प्रतिपन्नभावमार्गेण च यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह -
टीकार्थ – इस भावमार्ग का उपदेश क्या केवल वर्धमान स्वामी-भगवान महावीर ने ही किया अथवा अन्य तीर्थंकरों ने भी ? यह प्रश्न उपस्थित कर सूत्रकार इसका समाधान देते हुए कहते हैं -
अनादि-जिसका कोई आदि या प्रारंभ नहीं है उस काल में जो अनंत तीर्थंकर अतिक्रांत हो चुके हैं उन सबने इसी भावमार्ग का उपन्यास किया-निरूपण किया तथा अनागत-भावी अनन्तकाल में जो अनन्त तीर्थंकर होंगे, वे भी इस भावमार्ग का उपन्यास-उपदेश करेंगे । यहां प्रयुक्त 'च' शब्द के अनुसार वर्तमान काल में जो संख्यात तीर्थंकर विद्यमान हैं, वे भी इसी मार्ग का प्रतिपादन करते हैं । उन महापुरुषों ने इस मार्ग का केवल निरूपण ही नहीं किया वरन् इसका अपने जीवन में अनुष्ठान भी किया । सूत्रकार इसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं-शमन-कषायों का शमन करना शांति कहा जाता है । वह भाव मार्ग है । वही भूतकालीन, भविष्यकालीन तथा वर्तमानकालीन तीर्थंकरों का प्रतिष्ठान-आधार है । क्योंकि उसके बिना बुद्धत्व उत्पन्न-प्राप्त नहीं होता हैं । अथवा मोक्ष को शांति कहा जाता है, जो सभी तीर्थंकरों का प्रतिष्ठान या आधार हैं। उसी से शांति प्राप्त होती है । भावमार्ग के स्वीकार के बिना वह प्राप्त नहीं होती । अतएव सभी तीर्थंकरों ने भावमार्ग का आख्यान किया है-अनुष्ठान किया है, आचरण किया है । शांति ही तीर्थंकरों का प्रतिष्ठान-आधार है । इस संबंध में दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं-जैसे जीवों का आधार त्रैलोक्य. है, उसी तरह तीर्थंकरों का आधार शांति है ।
जिसने भाव मार्ग स्वीकार किया है, ऐसे साधु को जो करना चाहिये, उसका दिग्दर्शन कराने हेतु कहते
अह णं वयमावन्नं, फासा उच्चावया फुसे । ण तेसु विणिहण्णेजा, वाएण व महागिरी ॥३७॥ छाया - अथ वै व्रतमापन्नं स्पर्शा उच्चावचाः स्पृशेयुः ।
न तेषु विनिहन्याद् वातेनेव महागिरिः ॥ अनुवाद - व्रत आपन्न-जिसने व्रत स्वीकार किए हैं, ऐसे साधु को यदि उच्चावच्च-बड़े या छोटे तरह तरह के परीषह एवं उपसर्ग स्पर्श करे-उसे उनका सामना करना पड़े तो जैसे महान् पर्वत हवा के झोके से डिगता नहीं, उसी प्रकार साध संयम से विचलित न बने ।
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