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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् यह समस्त जगत तृष्णा रूपी बंधन में बंधा हुआ है । क्या तुम यह नहीं जानते । इसलिये वृद्धत्त्व रूपी हाथ द्वारा मेरे बालों को कठोरता के साथ मत पकड़ों । इन्हें छोड़ दो, आ जाओ-यों आदरपूर्वक बुलाये बिना भी क्या मैं आपके पास नहीं आऊँगा । इसलिये साधु को कषायों का परित्याग कर अछिन्न-परिपूर्ण प्रशस्त भावपूर्वक मोक्ष के अनुसंधान-साधना में तत्पर रहना चाहिये । यही उसके लिये श्रेयस्कर है ।
संधए साहधम्मं च, पावधम्मं णिराकरे । उवाणवीरिए भिक्खू, कोहं माणं ण पत्थए ॥३५॥ छाया - संधयेत्साहु धर्मञ्च, पापधर्म निराकुर्यात् ।।
उपधानवीर्यों भिक्षुः, क्रोधं मानञ्च वर्जयेत् ॥ अनुवाद - भिक्षु साधुधर्म-क्षांति आदि उत्तम धर्म का संधान करे, वृद्धि करे तथा पापमय कृत्यों का परित्याग करे । तपश्चरण में पराक्रम शील साधु क्रोध और मान का परिवर्जन करे ।
टीका - किञ्च-साधूनां धर्मः क्षान्त्यादिको दशविधः सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राख्यो वा तम् ‘अनुसंधयेत्' वृद्धिमापादयेत्, तद्यथा-प्रतिक्षणमपूर्वज्ञान ग्रहणेन ज्ञानं तथा शङ्कादिदोषपरिहारेण सम्यग्जीवादिपदार्थाधिगमेन च सम्यग्दर्शनम् अस्खलितमूलोत्तरगुण संपूर्णपालनेन प्रत्यहमपूर्वाभिग्रहग्रहणेन (च) चारित्रं (च) वृद्धिमा पादयेदिति, पाठान्तरं वा 'सद्दहे साधुधम्मं च' पूर्वोक्त विशेषणविशिष्टं साधुधर्मं मोक्षमार्गत्वेन श्रद्दधीत-निःशङ्कतया गृह्णीयात् च शब्दात्सम्यगनुपालयेच्च, तथा पापं-पापोपादानकारणं धर्मं प्राण्युपमर्दैन प्रवृत्तं निराकुर्यात्, तथोपधानं-तपस्तत्र यथाशक्त्या वीर्यं यस्य स भवत्युपधानवीर्यः, तदेवंभूतो भिक्षुः क्रोधं मानं च न प्रार्थयेत न वर्धयेद्वेति ॥३५॥
टीकार्थ - क्षांति-क्षमाशीलता आदि साधुओं का दस प्रकार का धर्म है अथवा सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र उनका धर्म है । साधु उसकी वृद्धि करे-उसे बढ़ाता जाये । वह प्रतिक्षण अपूर्व अभिनव ज्ञान का ग्रहण कर उसे बढ़ाये तथा शंका आदि दोषों का परिहार कर जीवादि पदार्थों को भलीभांति अधिगत कर सम्यक्दर्शन का अभिवर्द्धन करे, उन्नयन करे । अस्खलित-अतिचार रहित मूलगुणों तथा उत्तरगुणों का पूर्णरूप से पालन कर प्रतिदिन नव-नव अभिग्रह स्वीकरण द्वारा चारित्र की वृद्धि करे । यहाँ 'सद्दहे साधु धम्मंच' ऐसा पाठान्तर प्राप्त होता है । उसका यह तात्पर्य है कि पूर्वोक्त विशेष-विशिष्ट विशेषताओं से युक्त साधु धर्म को श्रद्धापूर्वक मोक्ष का मार्ग समझे तथा निशंक होकर उसे ग्रहण करे । यहां प्रयुक्त 'च' शब्द के अनुसार उस धर्म का सम्यक् अनुपालन करे । जो धर्म प्राणियों के उपमर्द-हिंसा से युक्त है, पाप का हेतु भूत है । उसका परित्याग करे । तपश्चरण में यथाशक्ति संलग्न रहे । क्रोध और मान को अपने में न आने दे । न उन्हें बढ़ने दे।
जे य बुद्धा अतिक्कंता, जे य बुद्धा अणागया । संति तेसिं पइट्टाणं, भूयाणं जगती जहा ॥३६॥ छाया - ये च बुद्धा अतिक्रान्ता ये च बुद्धा अनागताः ।
शांतिस्तेषां प्रतिष्ठानं भूतानां जगती यथा ॥
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