Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 522
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् द्वादशं श्रीसमवसरणाध्ययन चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाइं पुढो वयंति । किरियं अकिरियं विणियंति तइयं, अन्नाणमाहंसु चउत्थमेव ॥१॥ छाया - चत्वारि समवसरणानीमानि, प्रावादुकाः यानि पृथग्वदन्ति । क्रिया मक्रियां विनयमिति तृतीय मज्ञानमाहुश्चतुर्थमेव ॥ अनुवाद - प्रावादुक-अन्य दर्शनवादी जिन चार समोसरणों को-सिद्धान्तों को एकान्तररूप से प्रतिपादित करते हैं वे क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद एवं चौथा अज्ञानवाद है। टीका - अस्य च प्राक्तनाध्ययनेन सहायं संबन्धः, तद्यथा-साधुना प्रतिपन्नाभावमार्गेण कुमाश्रिताः परवादिनः सम्यक् परिज्ञाय परिहर्तव्याः, तत्स्वरूपाविष्करणं चानेनाध्ययनेनोपदिश्यते इति, अनन्तरसूत्रस्यानेन सूत्रेण सह संबन्धोऽयं,तद्यथा-संवृतो महाप्रज्ञो वीरो-दत्तैषणांचरन्नभिनिर्वृतःसन् मृत्युकालमभिकाङ्क्षद् एतत्केवलिनो भाषितं, तथा परतीर्थिकपरिहारं च कुर्यात् एतच्च केवलिनो मतम्, अतस्तत्परिहार्थं तत्स्वरूपणनिरुपणमनेन क्रियते। 'चत्वारी" ति संख्यापदमपरसंख्यानिवृत्यर्थं 'समवसरणानि' परतीर्थिकाभ्युपगमसमूहरूपाणि यानि प्रावादुकाः पृथक् पृथग्वदन्ति, तानि चामूनि अन्वर्थाभिधायिभिः संज्ञापदैनिर्दिश्यन्ते, तद्यथा-क्रियाम्-अस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, तथाऽक्रियां-नास्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां तेऽक्रियावादिनः, तथा तृतीया वैनयिकाश्चतुर्थास्त्वज्ञानिका इति ॥१॥ टीकार्थ - इस अध्ययन का पहले के-ग्यारहवें अध्ययन के साथ यह सम्बन्ध है । ग्यारहवे अध्ययन में बतलाया गया है कि भावमार्ग को प्राप्त साधु कुमार्गाश्रित परवादियों को भली भांति जानकर त्याग दे । अतः इस अध्ययन में उनका स्वरूप निरूपित किया जा रहा है । पूर्व सूत्र के साथ इस सूत्र का यह सम्बन्ध है। उसमें कहा गया है कि संवृत-संवरयुक्त महाप्रज्ञ-परममेधावी वीर आत्मपराक्रमशील साधु अन्य द्वारा दिये गये एषणीय-दोष रहित आहार आदि ग्रहण करता हुआ निर्वृत-प्रशान्त भाव युक्त या कषाय रहित होकर मृत्यु काल की अभिकांक्षा करे । यह केवली भगवान का भाषित है-मन्तव्य है । वह अन्य तीर्थंकरों का परिहार-परित्याग करे । यह भी केवली प्रभु का अभिमत है । उनके परिहार-परित्याग हेतु उनके स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है । यहां चार संख्यावचक पद का प्रयोग अन्य संख्याओं की निवृत्ति के लिये है । परतीर्थिकों द्वारा स्वीकृत सिद्धान्त चार प्रकार के हैं जिन्हें वे अलग-अलग आख्यात करते हैं । उनके अनवर्थक-अर्थ के अनुरूप नामों द्वारा सूत्रकार निर्देश करते हैं । वे जो इस प्रकार है-क्रिया का ही अस्तित्व है यों प्रतिपादित करने वाले क्रियावादी कहलाते हैं । क्रिया नहीं है-ऐसा कहने वाले अक्रियावादी हैं । तीसरे वैनषिक-विनयवादी तथा चौथे अज्ञानिकअज्ञानवादी हैं। अण्णाणिया ता कुसलावि संता, असंथुया णो वितिगिच्छतिन्ना । अकोविया आहु अकोवियेहिं, अणाणुवीइत्तु मुसं वयंति ॥२॥ -494)

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