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श्री मार्गाध्ययनं छाया - यथाऽऽस्त्राविणी नावं, जात्यन्थो दुरुह्य ।
इच्छति पार मागन्तु मन्तरा च विषीदति ॥३०॥ एवन्तु श्रमणा एके मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः ।
स्त्रोत: कृत्स्नमापन्ना आगन्तारो महाभयम् ॥३१॥ अनुवाद - जन्म से चक्षुहीन पुरुष जिस प्रकार एक छिद्र युक्त नौका पर आरूढ़ होकर नदी को पार करना चाहता है, किन्तु वह बीच में ही डूब जाता है, उसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि अनार्य-अधम श्रमण-तथाकथित साधु जो सम्पूर्ण रूप में आश्रवों का सेवन करते हैं, वे अत्यन्त भय को प्राप्त करते हैं ।
टीका - शाक्यादीनां चापायं दिदर्शयिषुस्तावदृष्टातमाह-यथा जात्यन्ध आस्राविणीं' शतच्छिद्रां नावमारुह्य पारमागन्तुमिच्छति, न चासौ सच्छिद्रतया पारगामी भवति, किं तहिं ? अन्तराल एव-विषीदतिनिमज्जतीत्यर्थः ॥
दार्टान्तिकमाह-एवमेव श्रमणा 'एके' शाक्यादयो मिथ्यादृष्टयोऽनार्या भावनोतः-कर्माश्रवरूपं कृत्स्नं' सम्पूर्णमापन्नाः सन्तस्ते 'महाभयं' पौनःपुन्येन संसार-पर्यटनया नारकादिस्वभावं दुःखम् 'आगन्तारः' आगमनशीला भवन्ति, न तेषां संसारोदधेरास्राविणी' नावं व्यवस्थितानामिवोत्तरणं भवतीति भावः ॥३०॥३१॥
टीकार्थ - शाक्य आदि के अपाय-विनाश या अधःपतन को बताने हेतु सूत्रकार दृष्टान्त द्वारा प्रतिपादित करते हैं-एक जन्म से अन्धा मनुष्य सैंकड़ों छिद्र युक्त नौका पर आरूढ़ होकर नदी को पार करना चाहता है किन्तु सछिद्र-छिद्र सहित नौका होने के कारण वह पार नहीं जा सकता, बीच में ही पानी में डूब जाता है ।
इस दृष्टान्त का सार बताते हुए सूत्रकार कहते हैं-इसी प्रकार मिथ्यादृष्टियुक्त अनार्य-बौद्ध आदि श्रमण जो सम्पूर्णत: कर्मों के आश्रव-कर्मागम स्रोत में संपृक्त होते हैं वे पुनः पुनः संसार में भटकते हुए नरक आदि के दुःखों को भोगते हैं । छिद्रयुक्त नौका पर बैठे हुए जनों की ज्यों वे संसार रूपी सागर को पार नहीं कर सकते ।
* * * इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं । तरे सोयं महाघोर, आत्तत्ताए परिव्वए ॥३२॥ छाया - इमञ्च धर्ममादाय, काश्यपेन प्रवेदितम् ।
तरेत्स्स्रोतो महाघोर मात्मत्राणाय परिव्रजेत् ॥ अनुवाद - काश्यप गौत्रीय भगवान महावीर द्वारा प्रवेदित-प्ररूपित इस धर्म को आत्मसात् कर मेधावी पुरुष महाघोर-अत्यन्त कष्टप्रद संसार के प्रवाह को पार करे । तथा आत्मत्राण-आत्मोत्थान हेतु अपने प्रव्रजित जीवन का-संयम का सम्यक् परिपालन करे। __टीका - यतः शाक्यादयः श्रमणाः मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः कृत्स्नं स्रोतः समापन्नाः महाभयमागन्तारो भवन्ति तत इदमुपदिश्यते-'इम' मिति प्रत्यक्षासन्नवाचित्वादिदमोऽनन्तरं वक्ष्यमाण लक्षणं सर्वलोक प्रकटं च दुर्गति-निषेधेन शोभनगतिधारणात् 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं चशब्दः पुनः शब्दार्थे, स च पूर्वस्माद्वयतिरेकं दर्शयति, यस्माच्छौद्धोदनिप्रणतिधर्मस्यादातारो महाभयं गन्तारो भवन्ति, इमं पुनर्धर्मम् 'आदाय' गृहीत्वा 'काश्यपेन' श्री
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