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श्री मार्गाध्ययनं है, मद-अहंकार का मित्र है, पाप का भवन-घर है, दुःख का प्रभव-उत्पत्ति हेतु है, सुख का विध्वंसक है, ध्यान के लिये कष्टप्रद शत्रु है । वह विद्वान को भी ग्रह की ज्यों कष्ट देता है-नष्ट कर डालता है । अतः भोजन पकाना पकवाना आदि क्रियाओं में संलग्न रहने वाले और उसी की फिक्र में जुटे हुए पुरुषों के लिये शुभ ध्यान कहां से संभावितहै । वे अन्य मतवादी धर्म अधर्म के विवेक में-उनके बीच भेद करने में अकुशल है क्योंकि वे शाक्य-बौद्ध मनोज्ञ-मन के लिये प्रीतिकर आहार, वसति-आवास स्थान, शैय्या आसन आदि जो वास्तव में रागोत्पादक हैं, उन्हें शुभ ध्यान का कारण मानते हैं । जैसा वे कहते हैं प्रिय स्वादिष्ट भोजन आदि के सेवन से शुभध्यान होता है । वे मांस को कल्किक नामांतर देकर उसे निर्दोष मानते हैं । बुद्ध संघ के निमित्त किये जाने वाले आरम्भ-हिंसा आदि उपक्रमों को निर्दोष कहतेहैं । कहा गयाहै कि अज्ञानी मांस निवृत्ति करअपने आपको मांस से निवृत्त बतलाकर भी मांस को कल्किक नाम देकर उसका सेवन करते हैं । आरम्भ को छोड़कर पर विपदेश से-संघ आदि औरों के नाम से वैसा करते हैं । किंतु ऐसा करने से-नाम परिवर्तन करने से दोष नहीं मिटता । जैसे लूता-ग्रीष्म ऋतु में अत्यधिक ताप को शीतलिका-ठंडक नाम देने से उसके गुण में विपरीतता नहीं आती अथवा विष को अमृत नाम देने से वह अमृत नहीं बन जाता । उसी तरह उत्पाद
और विनाश को आविर्भाव एवं तिरोभाव शब्द द्वारा प्रतिपादित करने वाले कपिल सिद्धान्त वादियों-सांख्यो की भी यह अनिपुणता है, ऐसा जानना चाहिये । मन के लिये प्रिय-प्रीतिजनक एवं उदिष्ट आहार का सेवन करने वाले परिग्रह रखने के कारण आर्त ध्यान में संलग्न रहने वाले असमाहित बौद्ध आदि तो असंवृतता-अशुभ के संवरण से रहित होने से मोक्ष मार्गमूलक समाधि से दूर ही रहते हैं ।
जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही। मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कलुसाधमं ॥२७॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्ठी अणारिया । विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा ॥२८॥ छाया - यथा ढाच कङ्काश्च कुररा मुद्गुकाः सिधाः ।
मत्स्यैषणं ध्यायन्ति, ध्यानं तत् कलुषाधमम् ॥ एवं तु श्रमणा एके मिथ्यादृष्टयोऽनाऱ्याः ।
विषयैषणं ध्यायन्ति, ध्यानन्तत् कलुषाधमम् ॥ अनुवाद - जैसे ढंक, कंक, कुरर, जलमुर्ग एवं शिखी नामक जल में रहने वाले पक्षी सदैव मछलियां पकड़ने की फिराक में रहते हैं उसी तरह कतिपय मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण तथा कथित साधु सदा कलुषित अधम विषय प्राप्तिमूलक ध्यान ध्याते रहते हैं ।
टीका - यथा चैते रससातागौरवतयाऽऽर्तध्यायिनोभवन्ति तथा दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह-यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः 'यथा' येन प्रकारेण 'ढङ्कादयः' पक्षिविशेषा जलाशयाश्रया आमिषजीविनो मत्स्यप्राप्तिं ध्यावन्ति, एवंभूतं च ध्यानमार्तरौद्रध्यानरूपतयाऽत्यन्तकलुषमधमं च भवतीति ॥२७॥
दार्टान्तिकं दर्शयितुमाह-'एव' मिति यथा ढङ्कादयो मत्स्यान्वेषणपरं ध्यानं ध्यायन्ति तद्ध्यायिनश्च कलुषाधमा भवन्ति एवमेव मिथ्यादृष्टयः श्रमणा 'एके' शाक्यादयोऽनार्यकर्मकारित्वासारम्भपरिग्रहतया अनार्याः सन्तो विषयाणां-शब्दादीनां प्राप्तिं ध्यायन्ति तद्धयायिनश्च कङ्का इव कलुषामा भवन्तीति ॥२८॥ किञ्च -
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