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श्री मार्गाध्ययनं अनुवाद - सदा आत्मगुप्त, दांत-जितेंद्रिय तथा छिन्नस्रोत मिथ्यात्त्व आदि के स्रोत का उच्छेदक तथा आश्रव रहित पुरुष प्रतिपूर्ण शुद्ध एवं अनुपम धर्म का उपदेश करता है ।
___टीका - किंभूतोऽसावाश्वासद्वीपो भवति ? की दृग्विधेन वाऽसावाख्यायत इत्येतदाहमनोवाक्कायैरात्मा गुप्तो यस्य स आत्मगुप्तः तथा 'सदा' सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तो-वशेयन्द्रियो धर्मध्यानध्यायी वेत्यर्थः, तथा छिन्नानि-त्रोटितानि संसारस्रोतांसि येन स तथा, एतदेव स्पष्टतरमाह-निर्गत आश्रवः-प्राणातिपातादिकः कर्मप्रवेशद्वाररूपो यस्मात्स निराश्रवो य एवंभूतः स 'शुद्ध' समस्तदोषापेतं धर्ममाख्याति, किंभूतं धर्म ? - 'प्रतिपूर्ण' निरवयवतया सर्वविरत्याख्यं मोक्षगमनैकहेतुम् 'अनीदृशम्' अनन्यसद्दशम् द्वितीयमितियावत्॥२४॥ एवंभूतधर्मव्यतिरेकिणां दोषाभिधित्सयाऽऽह -
टीकार्थ – वह द्वीप जो प्राणियों के विश्राम का हेत भूतहै, कैसा है ? कैसा पुरुष उसका आख्यानउपदेश करता है ? यह प्रकट करने हेतु सूत्रकार कहते हैं-जिसकी आत्मा मानसिक, वाचिक तथा कायिक असदाचरण से मुक्त है, जो सदैव इन्द्रिय तथा मन का दमन कर दांत-जितेन्द्रिय है, धर्मध्यान में अभिरत है, जिसने संसार के स्रोतों को उच्छिन्न कर डाला है-नष्ट कर डाला है, कर्मप्रवेश के द्वार रूप प्राणातिपात आदि आश्रव जिसके निर्गत-अपगत हो गये हैं, वैसा पुरुष शुद्ध-समग्र दोष रहित धर्म का आख्यान करता है, उपदेश करता है । प्रश्न उपस्थित करते हुए कहते हैं वह धर्म किस प्रकार का है ? उत्तर में निराकरण करतेहुए कहा जाता है-वह प्रतिपूर्ण है, अपने आप में संपूर्णता लिये हुए हैं । सब प्रकार के असत् विरमण से युक्त है, मोक्ष गमन का एकमात्र हेतु है, अनुपम है-जिसके सदृश दूसरा कोई नहीं है ।
जो ऐसे धर्म में विश्वास नहीं करते, उनके दोष प्रकट करने हेतु सूत्रकार कहते हैं।
तमेव अविजाणंता, अबुद्धा बुद्धमाणिणो । बुद्धा मोत्ति य मन्नंता, अंत एते समाहिए ॥२५॥ छाया - तमेवाविजानाना अबुद्धाः बुद्धमानिनः ।
बुद्धा स्मेति मन्यमाना अन्तएते समाधेः ॥ अनुवाद - जो धर्म के शुद्ध स्वरूप को नहीं जानते, जो अविवेक युक्त हैं हम ही तत्त्ववेत्ता हैं ऐसा समझते हैं वे अन्यमतवादी समाधी से दूर हैं।
टीका - तमेवंभूतं शुद्धं परिपूर्णमनीदृशं धर्ममजानाना 'अप्रबुद्धा' अविवेकिनः 'पण्डितमानिनो' वयमेव प्रतिबुद्धा धर्मतत्त्वमित्येवं मन्यमाना भाव समाधेः-सम्यग्दर्शनाख्यादन्ते-पर्यन्तेऽतिदूरे वर्तन्त इति, ते च सर्वेऽपि परतीर्थिका द्रष्टव्या इति ॥२५॥
___टीकार्थ - पहले जिसका उल्लेख हुआ है, वे ऐसे शुद्ध परिपूर्ण अनिदृश-अप्रतिम धर्म को जो नहीं जानते, जो विवेकशून्य हैं, हम ही प्रतिबद्ध हैं-धर्मतत्त्व के ज्ञाता हैं, ऐसा मानते हैं किन्तु वे सम्यक्दर्शन मूलक भाव समाधि से दूर है।
ते य बीओदगं चेव, तमुहिस्सा य जं कडं । भोच्चा झाणं झियायंति, अखेयन्नाऽ (अ) समाहिया ॥२६॥
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