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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् मध्य चंद्रमा श्रेष्ठ है उसी प्रकार मोक्ष सबसे श्रेष्ठ-उत्तम है । तत्त्वज्ञ पुरुष ऐसा कहते हैं । मोक्ष की सर्वोत्तमता को आत्मसात् करते हुए साधु संयम में सदा समुद्यत रहते हुए इन्द्रियों एवं मन को वशगत करते हुए मोक्ष हेतु सभी अपेक्षित साधनामूलक क्रियाएं करते रहे ।
बुज्झमाणाण पाणाणं, किच्चंताण सकम्मुणा ।
आघाति साहु तं दीवं, पतिढेसा पवुच्चई ॥२३॥ छाया - उह्यमानानं प्राणानां, कृत्यमानानां स्वकर्मणा ।
आख्याति साधु तद्वीपं, प्रतिष्ठैषा प्रोच्यते ॥ अनुवाद - भगवान महावीर आदि तीर्थंकरों, गणधरों ने उस धर्म का-मोक्ष मार्ग का आख्यान किया, जो मिथ्यात्व कषाय आदि की धारा में बहते जा रहे तथा अपने कर्मों के फलस्वरूप कष्ट पा रहे प्राणियों के लिये उत्तम द्वीप रूप-आश्रय स्थान स्वरूप है ।
टीका-किञ्चान्यत्-संसारसागर स्त्रोतोभिर्मिथ्यात्व-कषायप्रमादादिकैः उह्यमानानां तदभिमुखं नीयमानानां तथा स्वकर्मोदयेन निकृत्यमानानामशरणानामसुमतां परिहितैकरतोऽकारणवत्सलस्तीर्थकृदन्यो वा गणधराचार्यादिकस्तेषामाश्वासभूतं साधुं' शोभनं द्वीपमाख्याति, यथा समुद्रान्तः पतितस्य जन्तोर्जलकल्लोलाकुलितस्य मुमूर्षोर्रतिश्रान्तस्य विश्राम हेतुं द्वीपं काश्चित्साधुर्वत्सलतया समाख्याति, एवं तं तथाभूतं "द्वीप" सम्यक्दर्शनादिकं संसार भ्रमण विश्राम हेतुं परतीर्थिकैरनाख्यातपूर्वमाख्याति, एवं च कृत्वा प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा-संसारभ्रमण विरति लक्षणैषा सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिसाध्या मोक्ष प्राप्तिः प्रकर्षेण तत्त्वज्ञैः 'उच्यते प्रोच्यत इति ॥२३॥
टीकार्थ - मिथ्यात्व कषाय एवं प्रमाद आदि द्वारा जो संसार रूपी सागर के स्रोत हैं, बहाये जा रहेसंसार की ओर ले जाये जा रहे तथा अपने कर्मों के उदय से कष्ट भोग रहे । त्राण रहित प्राणियों के विश्रामअवलंबन हेतु परहित परायण अकारण वात्सल्यमय-कृपाशील तीर्थंकर, गणधर एवं आचार्य आदि सुन्दर द्वीप के आश्रयभूत सम्यक्दर्शन आदि का आख्यान करते हैं-जैसे समुद्र में पतित कोई प्राणी पानी की लहरों से आकुल-अत्यन्त परिश्रान्त तथा मरणासन्न हो रहा हो तो उसे विश्राम देने हेतु कोई सत्पुरुष वात्सल्यता-दयापूर्वक द्वीप का सहारा लेने का कथन करता है, उसी प्रकार संसार में भटकते रहने से परिश्रान्त बने प्राणियों के विश्राम हेतु तीर्थंकर आदि सम्यक्दर्शन आदि का उपदेश देते हैं । जैसा अन्य मतवादियों ने न कभी पहले किया और न करते हैं । तत्त्वदृष्टा पुरुष प्रतिपादित करते हैं कि सम्यक् दर्शन आदि से ही प्राणी प्रतिष्ठा-भव भ्रमण से छुटकारा-मोक्ष प्राप्त करते हैं।
आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे । जे धम्मं सुद्धमक्खाति, पडिपुन्नमणेलिसं ॥२४॥ छाया - आत्मगुप्तः सदा दान्त च्छिन्नस्रोता अनाश्रवः । ___यो धर्म शुद्ध माख्याति प्रतिपूर्ण मनीदृशम् ॥
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