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श्री मार्गाध्ययनं . में पुण्य होता है ऐसा प्रतिपादित न करे । इन दान कार्यों में पुण्य नहीं होता है-ऐसा प्रतिषेधात्मक वचन कहने पर उस दान से लाभान्वित होने वालों के अन्तराय या विघ्न होता है। अतः मोक्षाभिलाषी साधक इन दोनों में-न पुण्य कहतेहैं और न पाप कहते हैं । किन्हीं द्वारा पूछने पर वे मौन का आश्रय लेते हैं । किन्हीं द्वारा निर्बन्ध-अत्यधिक आग्रह किये जाने पर साधु को इतना मात्र ही बोलना चाहिये कि-हमारे लिये बयालीस दोष वर्जित आहार कल्पनीय है । ऐसे विषयों में कुछ बोलने का हम मुमुक्षुओं को अधिकार नहीं है । कहा हैसरोवरों में शीतल तथा चंद्र किरणों के सद्दश निर्मल जल का यथेच्छ पान कर प्राणी समूह अपनी पिपासा को भली भांति विच्छिन्न करते हैं-मिटाते हैं । वैसा कर वे मन में प्रमुदित होते हैं । यह सच है । किन्तु सूर्य की किरणों द्वारा सरोवर का पानी जब सूख जाता है तो अनन्त प्राणी विनष्ट हो जाते हैं-मर जाते हैं । अतः मुनिवृन्द कुएँ, सरोवर आदि कार्यों में उदासीन-तटस्थ भाव लिये रहते हैं । दोनों ही तरह से संभाषण करने पर-कहने पर कर्मबंध होता है यह जानकर साधु इस संबंध में मौन रहकर अथवा अनवद्य-दोष रहित, पापरहित संभाषण द्वारा कर्मबंध का परिहार कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
निव्वाणं परमं बुद्धा, णक्खत्ताण व चंदिमा । तम्हा सदा जए दंते, निव्वाणं संधए मुणी ॥२२॥ छाया - निर्वाणं परमं बुद्धाः नक्षत्राणामिव चन्द्रमाः ।
तस्मात् सदा यतो दान्त निर्वाणं साधयेन्मुनि ॥ अनुवाद - जिस प्रकार समग्र नक्षत्रों में चंद्रमा उत्तम है उसी प्रकार मोक्ष जगत में सबसे उत्तम है। जो पुरुष यह जानता है वह सर्वश्रेष्ठ है । अतः साधु सदैव संयम में समुद्यत और जितेन्द्रिय होकर मोक्ष की साधना में आगे बढ़े।
टीका - अपिच-निवृतिर्निवाणं तत्परमं-प्रधानं येषां परलोकार्थिनां बुद्धानां ते तथा तानेव बुद्धान् निर्वाणवादित्वेन प्रधानानित्येतदृष्टान्तेन दर्शयति-यथा 'नक्षत्राणाम्' अश्विन्यादीनां सौम्यत्वप्रमाणप्रकाशकत्वैरधिकश्चन्द्रमाः, एवं परलोकार्थिनां बुद्धानां मध्ये ये स्वर्गचक्रवर्तिसंपन्निदानपरित्यागेनाशेषकर्मक्षयरूपं निर्वाण मेवाभिसंधय प्रवृत्तास्त एवप्रधाना नापर इति, यदिवा यथा नक्षत्राणां चन्द्रमाः प्रधानभावमनुभवति एवं लोकस्य निर्वाणं परमं प्रधानमित्येवं 'बुद्धा' अवगत तत्त्वाः प्रतिपादयन्तीति, यस्माच्च निर्वाणं प्रधानं तस्मात्कारणात् 'सदा' सर्वकालं 'यतः' प्रयत प्रयत्नवा (ग्रं. ६०००) न इन्दियनोइन्द्रियदमनेन दान्तो ‘मुनि' साधु: 'निर्वाणमभिसंघयेत्' निर्वाणार्थं सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः ॥२२॥
____टीकार्थ - निर्वृत्ति-प्रशांतभाव को निर्वाण कहा जाता है । उसको सबसे प्रधान-उत्तम मानने वाले परलोकार्थी-अपने परलोक को सुधारने में समुद्यत, बुद्ध-तत्त्वज्ञ पुरुष निर्वाणवादित्व के कारण-निर्वाणवादी होने के कारण सबसे प्रधान है-श्रेष्ठ या उत्कृष्ट है । सूत्रकार दृष्टान्त द्वारा इसे प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-जैसे अश्विनी आदि नक्षत्रों में सौम्यता, प्रमाण, प्रकाशकर्ता आदि गुणों के कारण चंद्रमा, सर्वप्रधान-सर्वोत्कृष्ट है, उसी प्रकार परलोकार्थी प्रबुद्ध जनों में स्वर्ग तथा चक्रवर्ती के वैभव पाने के निदान-अभिप्सा का परित्याग कर समस्त कर्मों के क्षयस्वरूप मोक्ष की साधना में संप्रवृत्त हैं, वे ही सर्वोत्तम हैं-अन्य नहीं । अथवा जिस प्रकार नक्षत्रों के
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