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श्री मार्गाध्ययनं टीकार्थ – ऐसा क्यों नहीं अनुमोदन करे ? इसका समाधान करते हैं कि अन्नदान, खाद्य पदार्थ देने हेतु पचन-पकाना, पाचन-पकवाना आदि क्रियाओं के माध्यम से भोजन तैयार किया जाता है तथा जलदान हेतु कूपखनन आदि क्रियाएं करनी पड़ती हैं, इनमें त्रस स्थावर प्राणी व्यापादित होते हैं, नष्ट होते हैं । अतः उनके रक्षण के अभिप्राय से आत्मगुप्त जितेन्द्रिय साधु ऐसा न बोले कि आपके इस कार्य में पुण्य है।
जेसिं तं उवकप्पंति, अन्नपाणं तहाविहं । तेसिं लाभंतरायंति, तम्हा णस्थिति णो वए ॥१९॥ छाया - येषान्तदुपकल्पयन्त्यन्नपानं तथाविधम् ।
तेषां लाभान्तराय इति, तस्मान्नास्तीति नो वदेत् ॥ अनुवाद - जिन प्राणियों को देने हेतु खाद्य पदार्थ तैयार किये जाते हैं, पानी की व्यवस्था की जाती है, उन प्राणियों को इनके मिलने में अन्तराय-बाधा उत्पन्न न हो इस हेतु साधु ऐसा भी न बोले कि इसमें पुण्य नहीं है।
टीका - यद्येवं नास्ति पुण्यमिति ब्रूयात्, तदेतदपि न ब्रूयादित्याह-'येषां' जन्तूनां कृते 'तद्' अन्नपानादिकं किल धर्म बुद्धया उपकल्पयन्ति तथाविधं प्राण्युपमर्ददोषदुष्टं निष्पादयन्ति, तन्निषेधे चयस्मात् तेषाम्'आहारपानार्थिनां तत् 'लाभान्तरायो' विघ्नो भवेत्, तदभावेन तु ते पीडयेरन्, तस्मात्कूपखननसत्रादिके कर्मणि नास्ति पुण्यमित्येतदपि नो वदेदिति ॥१९॥
टीकार्थ - पुण्य नहीं है यों बोलना चाहिये किन्तु वैसा न बोले । इस प्रकार जो कहा-इस संबंध में स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं-जिन प्राणियों को धर्म बुद्धि से अन्नपान आदि का दान देना उपकल्पित करते हैं, वैसा करने में प्राणियों के उपमर्दन-हिंसा के दोष से वह कार्य दूषित होता है। उसका निषेध करने पर अन्न जल के इच्छुक प्राणियों के लाभ में अन्तराय या विघ्न होता है । उसके अभाव में वे पीडित होते हैं । अतः कुआँ खोदना अन्न क्षेत्र चलाना आदि कार्यों में पुण्य नहीं है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिये ।
जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं ।। जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते ॥२०॥ छाया - ये च दानं प्रशंसन्ति वधमिच्छन्ति प्राणिनाम् ।
ये च तं प्रतिषेधन्ति, वृत्तिच्छेदं कुर्वन्ति ते ॥ अनुवाद - जो दान की प्रशस्ति करते हैं-उसे अच्छा बतलाते हैं, वे प्राणियों के वध-नाश की इच्छा करते हैं तथा जो दान का प्रतिरोध करते हैं वे प्राणियों की वृत्ति-आजीविका का छेद-हनन या नाश करते हैं।
टीका - एनमेवार्थं पुनरपि समासतः स्पष्टतरं विभणिषुराह-ये केचन प्रपासत्रादिकं दानं बहूनां जन्तूनामुपकारीतिकृत्वा प्रशंसन्ति श्लाघन्ते ते' परमार्थनभिज्ञाःप्रभूततरप्राणिनांतत्प्रशंसाद्वारेण वध'प्राणातिपातमिच्छन्ति, तदानस्य प्राणातिपातमन्तरेणानुपपत्तेः, येऽपि च किल सूक्ष्मधियो वयमित्येवं मन्यमाना आगमसद्भावानभिज्ञाः
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