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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् जैसे कुआं खुदवाना, तालाब खुदवाना, प्याऊ लगवाना, अन्न क्षेत्र चलाना आदि करना चाहे और वह साधु से जिज्ञासित करे कि इसमें धर्म है या नहीं है अथवा वैसा वह जिज्ञासित न भी करे तो साधु उसके लिहाज से प्राणियों की हिंसा में उद्यत पुरुष को वैसा करने की अनुज्ञा न दे । प्रश्न उपस्थित करते हुए कहा जाता है कि कैसा होते हुए ? उत्तर के रूप में समाधान किया जाता है-मन, वचन एवं देह से आत्मगुप्त-पाप निवृत्त तथा जितेन्द्रिय होता हुआ वह साधु इस कार्य की अनुज्ञा न दे जो सावध है।
सावद्य कार्य की अनुमति का परिहार-प्रतिषेध करते हुए कहते हैं ।
तहा गिरं समारब्भ, अत्थि पुण्णंति णो वए ।
अहवाणत्थि पुण्णंति, एवमेयं महब्भयं ॥१७॥ छाया - तथा गिरं समारभ्य, अस्ति पुण्यमिति नो वदेत् ।
अथवा नास्ति पुण्य मित्येवमेतद् महाभयम् ॥ अनुवाद - यदि कोई पुरुष वैसा कार्य करना चाहता हुआ साधु से प्रश्न करे कि मेरे द्वारा किये जाते कार्य में पुण्य है अथवा पुण्य नहीं है, तो उस पर साधु पुण्य है, ऐसा न कहे तथा पुण्य नहीं है ऐसा कहना भी अत्यन्त भय का-दोष का हेतु है इसलिये वैसा भी न बोले ।
टीका - केनचिद्राजादिना कूपखननसत्रदानादिप्रवृत्तेन पृष्टः साधु:-किमस्मदनुष्ठाने अस्ति पण्यमाहोस्विन्नास्तीति ? एवं भतां गिरं 'समारभ्य' निशम्याश्रित्य अस्ति पण्यं नास्ति वेत्येवमभयथापि महाभयमिति मत्वा दोषहेतुत्वेन नानुमन्येत ॥१७॥
टीकार्थ - कुआँ खुदवाना या अन्नक्षेत्र चलाना आदि कार्य हेतु उद्यत् कोई राजा आदि साधु से प्रश्न करे कि मेरे इस कार्य में पुण्य है अथवा पुण्य नहीं है तो साधु उसकी इस प्रकार की वाणी सुनकर पुण्य है अथवा पुण्य नहीं है-इन दोनों ही प्रकार के उत्तर में अत्यन्त भय-दोष देखता हुआ दोनों में से किसी का भी अनुमोदन न करे ।
दाणट्ठया य जे पाणा, हम्मति तसथावरा । तेसिं सारक्खणढाए, तम्हा अत्थित्ति णो वए ॥१८॥ छाया - दानार्थञ्च ये प्राणाः हन्यन्ते त्रस स्थावराः ।
तेषां संरक्षणार्थाय तस्मादस्तीति नो वदेत् ॥ अनुवाद - अन्नदान एवं जलदान करने हेतु जो त्रस या स्थावर प्राणी हत प्रतिहत किये जाते है उनके संरक्षण के दृष्टिकोण से साधु वैसा करने में पुण्य होता है, यह न कहे ।
टीका- किमर्थं नानुभन्येत इत्याह-अन्नपानदानार्थ-माहारमुदकंच पचनपाचनादिकया क्रिययाकूपखननादिकया चोपकल्पयेत्, तत्र यस्माद् ‘हन्यन्ते' व्यापाद्यन्ते त्रसाः स्थावराश्च जन्तवः तस्मात्तेषां 'रक्षाणार्थं' रक्षा निमित्तं साधुरात्मगुप्तो जितेन्द्रियोऽत्र भवदीयानुष्ठाने पुण्यमित्येवं नो वदेदिति ॥१८॥
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