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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीका - आश्रवद्वाराणां रोधेनेन्द्रियनिरोधेन च संवृतः स भिक्षुर्महती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञोविपुलबुद्धिरित्यर्थः, तदनेन जीवाजीवादि पदार्थाभिज्ञतावेदिता. भवति, 'धीरः' अक्षोभ्यः क्षुत्पिपासादिपरीषहैर्न क्षोभ्यते, तदेव दर्शयति-आहारोपधिशय्यादिके स्वस्वामिना तत्संदिष्टेन वा दत्ते सत्येषणां चरति एषणीयं गृह्णातीत्यर्थः, एषणाया एषणायां वा गवेषणग्रहणग्रासरुपायां त्रिविधाया मपि सम्यगितः समितः,ससाधुर्नित्यमेषणासमितःसन्ननेषणां वर्जयन्' परित्यजन्संचममनुपालयेत्, उपलक्षणार्थत्वादस्य शेषाभिरपीर्यासमित्यादिभिः समितो द्रष्टव्य इति ॥१३॥
टीकार्थ - आश्रव द्वारों का तथा इन्द्रियों का अवरोध कर पापों से संवृत्त-बचा हुआ वह साधु बड़ा ही प्रज्ञाशील है । जीव-अजीव आदि पदार्थों का वेत्ता हैं, जो भूख प्यास आदि परिषहों से क्षुब्ध-विचलित नहीं होता । सूत्रकार इसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि वह भोजन, उपधि-साधु जीवनोपयोगी सामग्री तथा शैय्या आदि उनके मालिक द्वारा या उनके मालिक से संदिष्ट-आदिष्ट या नियुक्त दूसरे व्यक्ति के देने पर ही उन्हें परीक्षा कर एषणीय-निर्दोष ही ग्रहण करता है । जो साधु एषणा गवेषणा तथा ग्रास रूप में ग्रहण इन तीनों में सम्यक्-भलीभांति समित-समितियुक्त रहता है वह नित्य एषणायुक्त होता हुआ अनेषणा का वर्जन करता हुआ संयम का पालन करे । उपलक्षण से-संकेत रूप में ईर्या समिति आदि से भी वह युक्त रहे । यह दृष्टव्य-ज्ञातव्य है।
भूयाइं च समारंभ, तमुहिस्सा य जं कडं । तारिसं तु ण गिण्हेजा, अन्नपाणं सुसंजए ॥१४॥ छाया - भूतानि च समारम्भ, तमुद्दिश्यच. यत्कृतम् ।
__ तादृशन्तु न गृह्णीयादन्नपानं सुसंयत ॥
अनुवाद - जो भोजन भूतों-प्राणियों के आरम्भ-हिंसामूलक उपक्रम द्वारा साधुओं को देने हेतु तैयार किया गया हो, संयमी साधु उसे ग्रहण न करे ।
टीका - अनेषणीयपरिहारमधिकृत्याह-अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च प्राणिनस्तानि भूतानि प्राणिनः 'समारम्य'संरम्भसमारम्भारम्भैरूपताप्य तं साधुम् उद्दिश्य' साध्वर्थं यत्कृतं तदुपकल्पितमाहारोपकरणादिकं तादशम्' आधाकर्मदोषदुष्टं 'सुसंयतः' सुतपस्वी तदन्नं पानकं वा न भुञ्जीत, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैवाभ्यवहरेद्, एवं तेन मार्गोऽनुपालितो भवति ॥१४॥
टीकार्थ - सूत्रकार अब अनेषणीय-दोषयुक्त पदार्थ के त्याग के सम्बन्ध में कहते हैं । जो पूर्व मेंअतीत में थे, वर्तमान में है तथा भविष्य में होंगे उन्हें भूत कहा जाता है । वे प्राणी हैं, उनके संरम्भ, समारंभ तथा आरम्भ द्वारा उन्हें उतप्त कर-पीडित कर तथा साधु को दान देने हेतु जो भोजन तथा अन्य उपकरण वस्तुएं तैयार की जाती है वे आधा कर्म रूप-औद्देशिक दोष से दूषित होतीहै । अतः उत्तम तपश्चरणशील साधु वैसे खाद्य पेय पदार्थों का सेवन न करे । यहां आया हआ 'त' शब्द एव-ही के अर्थ में है जिसका अभिप्राय है कि इस प्रकार के भोजन का साधु कदापि सेवन न करे। ऐसा करने से ही उस साधु द्वारा मोक्ष का मार्ग अनुपालित होता है-वह मोक्ष मार्ग का सम्यक् परिपालन करता है ।
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