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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् तदेवमहिंसाप्रधानः समय-आगमः संकेतो वो पदे शरूपस्तमेवंभूतमहिंसासमयमेतावन्तमेव विज्ञाय किमन्येन बहुना परिज्ञानेन ? एतावतैव परिज्ञानेन मुमुक्षोविंवक्षितकार्यपरिसमाप्तेरतो न हिंस्यात्कञ्चनेति ।
टीकार्थ- अहिंसा का समर्थन करते हुए सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं-यहां 'खु' शब्द वाक्य के अलंकरणसुंदरता अथवा अवधारणा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । पहले वर्णित जीवों के प्राणिपात-हिंसा से निवर्तन ही ज्ञानी का-जीव का यथार्थ स्वरूप है तथा उसके वध के फलस्वरूप होने वाले कर्मबन्ध को जानने वाले ज्ञानी का यह सार है-मुख्य कर्त्तव्य है। अहिंसा के प्रति आदर ख्यापन हेत पन: यही बात कहते हैं कि जो प्राणी दुःख को अनिष्ट-अप्रिय मानते हैं, सुख की एषणा-वाञ्छा रखते हैं, उन्हें न मारना ही ज्ञानवान पुरुष के ज्ञान का सार है-साफल्य या सार्थक्य है । दूसरे शब्दों में जीवहिंसा से निवृत्त-पृथक् रहना ही ज्ञानी के ज्ञान की सारवन्ता-यथार्थता है । इतर प्राणी को पीडा देने से अपने आप का निवर्तन करना-उससे निवत्त रहना ही यथार्थ ज्ञान है । इसलिये कहा है-पलाल-घास फूस के सद्दश करोड़ों पदों के पढ़ने से क्या बना । उन्हें पढ़ने वाले ने इतना भी नहीं जाना कि अन्य किसी के लिये पीड़ा उत्पन्न नहीं करनी चाहिये । अहिंसा प्रधान आगम या शास्त्र का यही संकेत है-उपदेश है । इतना ही जान लेना यथेष्ट है । अन्य बहुविध परिज्ञान से बहुत बातों को जानने से क्या सधेगा । क्योंकि मुमुक्षु-मोक्ष के अभिलाषी पुरुष के अभिप्सित प्रयोजन की सिद्धि तो इतने से ही हो जातीहै । अत: किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये ।
उर्दू अहे य तिरियं, जे केइ तसथावरा ।
सव्वत्थ विरतिं कुजा, संति निव्वाणमाहियं ॥११॥ छाया - ऊर्ध्व मध स्तिर्यक् ये केचित् त्रसस्थावराः ।
___ सर्वत्र विरतिं कुर्य्यात् शांति निर्वाण माख्यातम् ॥
अनुवाद - ऊर्ध्व-ऊंचे या ऊपर, अधः नीचे, तिर्यक-तिरछे स्थान में या दिक् भाग में जो त्रस या स्थावर प्राणी रहते हैं, उन सबके प्रति विरत-हिंसा निवृत्त रहना चाहिये । उसी से शांतिमय मोक्ष प्राप्त होता है । ऐसा कहा गया है।
टीका - साम्प्रतं क्षेत्रप्राणातिपातमधिकृत्याह-ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च ये केचन त्रसा:-तेजोवायुद्वीन्द्रियादयः तथास्थावरा:-पृथिव्यादयः, किंबहुनोक्तेन?, सर्वत्र' प्राणिनि त्रस स्थावरसूक्ष्म बादरभेदभिन्ने विरति' प्राणातिपातनिवृत्तिं 'विजानीयात्' कुर्यात्, परमार्थत एवमेवासौ ज्ञाता भवति यदि सम्यक् क्रियत इति, एषैव च प्राणातिपातनिवृत्तिः परेषामात्मनश्च शांतिहेतुत्वाच्छान्तिर्वर्तते, यतो विरतिमतो नान्ये केचन विभ्यति, नाप्यसौ भवान्तरेऽपि कुतश्चिद्विभेति, अपिच-निर्वाणप्रधानैक कारणत्वान्निवणिमपि प्राणातिपात निवृत्तिरेव, यदिवा शांति:-उपशान्तता निर्वतिः-निर्वाणं विरतिमांश्चातरौद्रध्यानाभावादुपशांतिरूपो निर्वृतिभूतश्च भवति ॥११॥
टीकार्थ – सूत्रकार अब क्षेत्र प्राणातिपात के संदर्भ में प्रतिपादित करते हैं -
ऊर्ध्व, अध: और तिर्यक् क्षेत्र में जो कोई त्रस-अग्नि वायु और द्वीन्द्रिय आदि प्राणी रहते हैं तथा स्थावरपृथ्वी आदि प्राणी है, अधिक क्या कहा जाये, उन सभी त्रस, स्थावर, सूक्ष्म एवं बादर प्राणियों की हिंसा से विरत रहना चाहिये । उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । जो पुरुष ऐसा करता है, वही पारमार्थिक रूप में ज्ञाता
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