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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् कभेदाच्चतुर्विधाः । तदेवमनन्तरोक्तया नीत्या चतुर्दशभूतग्रामात्मकतया षट् जीवनिकाया व्याख्यातास्तीर्थंकरगणधरादिभिः, 'एतावान्' एतद्भेदात्मक एव संक्षेपतो 'जीवनिकायो' जीवराशिर्भवति, अण्डजोद्भिज्जसंस्वेदजादेरत्रैवान्तर्भावान्नापरो जीवराशिविद्यते कश्चिदिति ॥८॥ तदेवं षड्जीवनिकायं प्रदर्श्य यत्तत्रविधेयं तद्दर्शयितुमाह
_____टीकार्थ – सूत्रकार अब षष्ठ जीव निकाय के प्रतिपादन हेतु-छट्ठी कोटि के जीवों को बताने के लिये कहते हैं - पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा बनस्पति-ये एकेन्द्रिय जीव हैं । सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त एवं अपर्याप्त के रूप में ये चार चार तरह के हैं । जो त्रस्त होते हैं या त्रास पाते हुए प्रतीत होते हैं वे त्रस कहे जाते हैं। ये द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय होते हैं। वे कृमि-कीटाणु, पिपीलिका-चींटी, भ्रमर-भंवरा, तथा मनुष्य आदि है । इन द्वि इन्द्रिय, ति-इन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय जीवों में प्रत्येक पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से छः तरह के हैं । पंचेन्द्रिय-संज्ञी समनस्क, असंज्ञी-अमनस्क पर्याप्त और अपर्याप्त रूप में चार तरह के हैं । तीर्थंकरों एवं गणधरों आदि ने चवदह प्रकार के छ: निकाय व्याख्यात किये हैं । संक्षेप में इन भेदों से युक्त इतना ही जीवनिकाय-जीव राशि है । अण्डज, उद्भिज्ज, संस्वेदज, आदि का इन्हीं में अन्तर्भाव-समावेश हो जाता है । अतः इनसे भिन्न कोई अपर जीव राशि नहीं है। .
इस प्रकार छः जीव निकाय का दिग्दर्शन कराकर वहां क्या करणीय है, यह बताने हेतु सूत्रकार कहते
सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं, मतिमं पडिलेहिया । सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अतो सव्वे अहिंसया ॥९॥ छाया - सर्वाभिरनुयुक्तिभि मंतिमान् प्रतिलेख्य ।
सर्वेऽकान्तदुःखाश्चातः सर्वान्न हिंस्यात् ॥ अनुवाद - मतिमान-मेधावी पुरुष सब अनुयुक्तियों से-न्याय एवं तर्क द्वारा इन जीवों का जीवत्व सिद्धकर यह जाने कि ये सभी प्राणी अकांत दुःख है, इन्हें दुःख कांत या प्रिय नहीं लगता-वे उसे नहीं चाहते । अतः उन सबकी या उनमें से किसी की भी वह हिंसा न करे ।
टीका - सर्वा याः काञ्चनानुरूपा:-पृथिव्यादि जीव निकायसाधनत्वेनानुकूला युक्तयः-साधनानि, यदिवा असिद्ध विरुद्धानेकान्तिक परिहारेण पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वविपक्षव्यावृत्तिरुपतया युक्ति संगता युक्त यः अनुयुक्तयस्ताभिरनुयुक्तिभिः ‘मतिमान्' सद्विवेकी पृथिव्यादिजीवनिकायान् ‘प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य जीवत्वेन प्रसाध्य तथा सर्वेऽपि प्राणिनः ‘अकान्तदुःखा' दुःखद्विषः सुखलिप्सवश्च मन्वानो मतिमान् सर्वानपि प्राणिनो न हिंस्यादिति। युक्तयश्च तत्प्रसाधिकाः संक्षेपेणेमा इतिसात्मिका पृथिवी, तदात्मनां विद्रुमलवणोपलादीनां समानजातीयाङ्करसद्भावाद्, अर्थोविकाराङ्करवत् । तथा सचेतनमम्भः भूमिखननादविकृत स्वभावसंभवाद् दर्दुरवत्। तथा सात्मकं तेजः तद्योग्याहारवृद्धया वृद्धयुपलब्धः, बालकवत् । तथा सात्मको वायुः अपराप्रेरितनियततिरश्चीनगतिमत्त्वात्, गोवत्। तथा सचेतना वनस्पतयः, जन्मजरामरणरोगादीनां समुदितानां सद्भावात्, स्त्रीवत, तथा क्षतसंरोहणाहारोपादानदोहदसद्भावस्पर्शसंकोच सायाह्रस्वापप्रबोधाश्रयोपसर्पणा दिभ्यो हेतुभ्यो वनस्पतेश्चैतन्य सिद्धिः । द्वीन्द्रियादीनां तु पुनः कृम्यादीनां स्पष्टमेव चैत्यं, तद्वेदनाश्चौपक्रमिका: स्वाभाविकाश्च समुपलम्ब मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतिभिश्च नवकेन भेदेन तत्पीड़ाकारिण उपमर्दान्निवर्तितव्यमिति ॥९॥
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