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___ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् 'प्रतिषेधन्ति' निषेधयन्ति तेऽप्यगीतार्थाः प्राणिनां 'वृत्तिच्छेदं' वर्तनोपायविघ्नं कुर्वन्तीति ॥२०॥ तदेवं राज्ञा अन्येन वेश्वरेण कूपतडागयागसत्रदानाद्युद्यतेन पुण्यसद्भावं पृष्टैर्मुमुक्षुभिर्यद्विधेयं तद्दर्शपितुमाह -
___टीकार्थ - सूत्रकार इसी बात को संक्षिप्त रूप में स्पष्ट करने हेतु प्रतिपादित करते हैं-प्याऊ लगाना, अन्न क्षेत्र चलाना आदि दानमूलक कार्यों को यह जानकर कि इनसे बहुत से जीवों का उपकार सधता है, ' जो इनकी श्लाघा-बड़ाई करते हैं वे परमार्थ से-सत्य तत्त्व से अनभिज्ञ हैं, वास्तविकता नहीं जानते । वे उन कार्यों की श्लाघा द्वारा अनेक प्राणियों के प्राणातिपात-हिंसा की इच्छा रखते हैं क्योंकि प्राणियों के अतिपातनाश के बिना ये कार्य उपपन नहीं हो सकते-सध नहीं सकते । हम सूक्ष्म बुद्धि के धनी हैं, यों मानते हुए आगमिक सिद्धान्त से अनभिज्ञ पुरुष इन दान कार्यों का निषेध करते हैं वे भी अगीतार्थ हैं-शास्त्र के रहस्य से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि निषेध किये जाने से प्राणियों की जीविका का-आजीविका का विच्छेद होताहै । उसमें विघ्न होता है।
राजा अथवा अन्य किसी वैभवशाली पुरुष द्वारा कुआँ खुदवाना, तालाब खुदवाना, यज्ञ करना, अन्नक्षेत्र चलाना आदि कार्य करने हेतु उद्यत होकर साधु से इन कार्यों में क्या पुण्य होता है ? यह पूछे जाने पर मोक्षार्थी साधु द्वारा जो किया जाना चाहिये, कहा जाना चाहिये, यह दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार बतलाते हैं ।
दुहओवि ते ण भासंति, अत्थि वा नत्थि वा पुणो ।
आयं रयस्स हेच्चा णं निव्वाणं पाउणंति ते ॥२१॥ छाया - द्विधाऽपि ते न भाषन्ते, अस्ति वा नास्ति वा पुनः ।
__ आयं रजसो हित्वा, निर्वाणं प्राप्नुवन्ति ते ॥ अनुवाद - साधु अन्न विषयक तथा जल विषयक दान में पुण्य होता है या पुण्य नहीं होता है, ये दोनों ही बात नहीं कहते । वे कर्मरज का आगमन त्यागकर आश्रव निरोध कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। ,
टीका - यद्यस्ति पुण्यमित्येवमूचुस्ततोऽनन्तानां सत्त्वानां सूक्ष्मबादराणां सर्वदा प्राणत्याग एवं स्वात प्रीणनमात्रं तु पुनः स्वल्पानां स्वल्पकालीयमतोऽस्तीति न वक्तव्यं नास्ति पुण्यमित्येवं प्रतिषेधेऽपि तदर्थिनामन्तराय: स्यादित्यतो 'द्विधापि' अस्ति नास्ति वा पण्य मित्येव 'ते' ममक्षवः साधवः पनर्न भाषन्ते. किंत पष्टै सदिमौनं समाश्रयणीयं, निर्बन्धे त्वस्माकं द्विचत्वारिंशद्दोषवर्जित आहारः कल्पते, एवंविधविषये मुमुक्षुणामधिकार एव नास्तीति, उक्तं च -
"सत्यंवप्रेषु शीतं शशिकरधवलं वारि पीत्वा प्रकामं, व्युच्छिन्नाशेषतृष्णाः प्रमुदितमनसः प्राणि सार्था भवन्ति। शोषं नीते जलौघे दिनकर किरणैर्यान्त्यनन्ता विनाशं, तेनोदासीनभावं व्रजति मुनिगणः कूपवप्रादिकायें ॥१॥"
तदेवमुभयथापि भाषिते 'रजसः' कर्मण 'आयो' लाभो भवतीत्यतस्तमायं रजसो मौनेनानवद्यभाषणेन वा 'हित्वा' त्यक्त्वा 'ते' अनवद्यभाषिणो 'निर्वाणं' मोक्षं प्राप्नुवन्तीति ॥२१॥
टीकार्थ – अन्नक्षेत्र, जल प्रपा आदि के निर्माण या संचालन आदि में पुण्य होताहै-यदि साधु यों कहे तो उसके समक्ष यह स्थिति उत्पन्न होती है कि इन कार्यों में अनन्त सूक्ष्म और स्थूल जीवों का सदा विनाश होता है और थोड़े से जीवों को स्वल्पकाल तकतृप्ति मिलती है । अत: यह विचारते हुए इन दान कार्यों
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