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The Jain should not partake in any food that has even a single particle of food that is contaminated with the five great sins (Ahimsa, Satya, Asteya, Brahmacharya, Aparigraha). This is the dharma of the one who is truly restrained. Even if there is doubt about the purity of the food, the Jain should not accept it. The Jain should not allow any living being to be harmed in the places where they reside, whether it be in villages, towns, or cities. The Jain who is truly restrained, who has conquered their senses, and who is pure in thought, word, and deed, will not allow such an act.
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________________ श्री मार्गाध्ययनं पूईकम्मं न सेविजा, एस धम्मे वुसीमओ । जं किंचि अभिकंखेजा, सव्वसो तं न कप्पए ॥१५॥ छाया - पूर्तिकर्म न सेवेत, एषधर्मः संयमवतः । . यत्किञ्चिदभिकाङ्क्षत, सर्वशस्तन्न कल्पते । अनुवाद - जिस आहार में आधाकर्म-दोषयुक्त आहार का एक कण भी मिला हुआ हो, साधु उसे ग्रहण न करे । संयमशील साधु का यही धर्म है । यदि शुद्ध आहार में ऐसी शंका हो जाय कि वह वास्तव में शुद्ध नहीं है तो भी साधु उसे स्वीकार न करे । . टीका - किञ्च-आधाकर्माद्य विशुद्धकोट्यवयवेनापि संपृक्तं पूर्तिकर्म, तदेवंभूतमाहारादिकं 'न सेवेत' नोपभुञ्जीत, एषः-अनन्तरोक्तो धर्मः कल्पः स्वभावः-'बुसीमओ' त्ति सम्यक्संयम वतोऽयमेवानुष्ठानकल्पो यदुताशुद्धमाहारादिकं परिहरतीति, किञ्चयदप्य शुद्धत्वेनाभिकाङ्क्षत्-शुद्धमप्यशुद्धत्वेनाभिशङ्केत किञ्चिदप्याहारादिकं तत् 'सर्वशः' सर्वप्रकारमप्याहारोपकरणपूर्तिकर्म भोक्तं न कल्पत इति ॥१५॥ टीकार्थ - जो आहार आधा कर्म आदिअविशुद्ध कोटि के-अशुद्धतापूर्ण आहार के एक कण से भी संपृक्त-सम्मिश्रित हो उसे पूति कर्म कहा जाता है । साधु इस प्रकार के आहार का उपभोग-सेवन न करे । संयम का सम्यक् पालन करने वाले साधु का यही धर्म है-स्वभाव है अथवा अनुष्ठान है । वह अशुद्ध आहार आदि का परिहार-परिवर्जन करता है । शुद्ध होते हुए भी जिस आहार में अशुद्धता की आशंका हो साधु के लिये वह आहार तथा सर्वविध आहारोपकरण जो पूति कर्म में आते हैं कल्पनीय-सेवन करने योग्य नहीं है। हणंतं णाणुजाणेजा, आयगुत्ते जिइंदिए । ठाणाइं संति सड्ढीणं, गामेसु नगरे सु वा ॥१६॥ छाया - जन्तं नानुजोनीयादात्मगुप्तो जितेन्द्रियः । __ स्थानानि सन्ति श्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषुवा ॥ अनुवाद - साधु को गांवों और नगरों में अपने श्रद्धावान उपासकों के स्थान आवास हेतु प्राप्त होते हैं । वहां यदि कोई जीव हिंसात्मक कार्य करे तो आत्मगुप्त-पाप निवृत्त, जितेन्द्रिय साधु उसकी अनुमति न दे। टीका - किञ्चान्यत्-धर्म श्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषु वा खेटकर्बटादिषु वा 'स्थानानि' आश्रयाः 'सन्ति' विद्यन्ते, तत्र तत्स्थानाश्रितः कश्चिद्धर्मोपदेशेन किल धर्मश्रद्धालुतया प्राण्युपमर्दकारिणीं धर्मबुद्धया कूपतडागखननप्रपासत्रादिकां क्रियां कुर्यात् तेन च तथा भूत क्रियायाः कर्ता किमत्र धर्मोऽस्ति नास्तीत्येवं पृष्टोऽपृष्टो वा तदुपरोधाद्भायाद्वा तं प्राणिनो घ्नन्तं नानुजानीयात्, किंभूतः सन् ? - 'आत्मना' मनोवाक्कायरूपेण गुप्त आत्मगुप्तः तथा 'जितेन्द्रियो' वश्येन्द्रियः सावद्यानुष्ठानं नानुमन्येत ॥१६॥ सावद्यानुष्ठानानुमतिं परिहर्तुकाम आह टीकार्थ - धर्म में श्रद्धाशील जनों-श्रमणों, उपासकों के गांवों, नगरों, उपनगरों तथा आसपास के आवास स्थानों में साधुओं को रहने हेतु स्थान प्राप्त होता है । वहां रहने वाला कोई पुरुष धर्म श्रद्धालुता के कारण धर्मोपदेश से प्रेरित होकर धर्म बुद्धि से वैसी क्रियाएं जिनमें प्राणियों का उपमर्दन-व्याघात होता है (477)
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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