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धर्म अध्ययनं अनुवाद - इस संसार में जिस अन्न, जल के सेवन करने से साधु का संयम विकृत हो जाता है, नष्ट हो जाता है, वैसा अन्न पानी आदि साधु किसी अन्य साधु को न दे । वह आवागमन को बढ़ाता है। विवेकशील मुनि यह जानता हुआ इसका परित्याग करे ।
टीका - किञ्चान्यत्-'येन' अन्नेन पानेन वा तथाविधेनेति सुपरिशुद्धेन कारणापेक्षयात्वशुद्धेन वा 'इह' अस्मिन् लोके इदं संयमयात्रादिकं दुर्भिक्षरोगातङ्कादिकं वा भिक्षुः निर्वहेत् निर्वाहयेद्वा तदन्नं पानं वा 'तथाविधं' द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया 'शुद्ध' कल्पं गृह्णीयात्तथैतेषाम्-अन्नादीनामनुप्रदानमन्यस्मै साधवे संयमयात्रा निर्वहणसमर्थमनुतिष्ठेत्, यदिवा-येन केनचिदनुष्ठितेन 'इमं'संयम निर्वहेत्'निर्वाहयेद् असारतामापादयेत्तथाविधमशनं पानं वाऽन्यद्वा तथाविधमनुष्ठानं न कुर्यात् तथैतेषामशनादीनाम् 'अनुप्रदानं' गृहस्थानां परतीर्थिकानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपघातकं नानुशीलयेदिति, तदेवत्सर्वं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा सम्यक् परिहरेदिति ॥२३॥
टीकार्थ - जिस सुपरिशुद्ध अन्न जल से अथवा कारण की अपेक्षा से जिस अशुद्ध अन्न जल से साधु इस जगत में अपनी संयम यात्रा का, दुर्भिक्ष-अकाल, रोग, आतंक का निर्वाह करता है, ऐसे समयों में जीवन चलाता है, वह साधु सामान्य अवस्था में द्रव्यक्षेत्र काल एवं भाव की अपेक्षा से शुद्ध एवं कल्पनीय अन्न जल ग्रहण करे । तथा वैसा ही शुद्ध कल्पनीय अन्न जल संयम के निर्वहण हेतु अन्य साधु को दे । अथवा जो कार्य करने से साधु का संयम असार बनता है, विकृत या नष्ट होता है, वैसा भोजन तथा पानी उसे न दे । वैसे अन्य कार्य भी न करे, जिससे संयम नष्ट होता है । वैसा अशुद्ध भोजन आदि वह किन्हीं गृहस्थों को, परतीर्थिकों को-परमतवादियों को अथवा स्वयूथिको को न दे । साधु इन बातों को संयमोपघातकसंयम का उपघात करने वाली मानकर इनका परित्याण करे ।
एवं उदाह निग्गंथे, महावीरे महामुणी ।
अणंत नाणदंसी से, धम्म देसितवं सुतं ॥२४॥ छाया - एवमुदाहृतवान् निग्रन्थो, महावीरो महामुनिः ।
___ अनन्तज्ञानदर्शनी स, धर्म देशितवान् श्रुतम् ॥
अनुवाद - निर्ग्रन्थ-बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथियों से विमुक्त, अनंत ज्ञान, दर्शन के धनी भगवान महावीर ने इस धर्म-चारित्र एवं श्रुत-ज्ञान का उपदेश दिया है ।
____टीका - यदुपदेशेनैतत्सर्वं कुर्यात्तं दर्शयितुमाह-एवम्' अनन्तरोक्तया नीत्या उद्देशकादेरारभ्य 'उराहु' त्ति उदाहृतवानुक्तवान् निर्गतः सबाह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्मात्स निर्ग्रन्थो 'महावीर' इति श्रीमद्वर्धमानस्वामी महांश्चासौ मुनिश्च महामुनिः अनन्तं ज्ञानदर्शनं च यस्यासावनन्तज्ञानदर्शनी स भगवान् 'धर्म' चारित्रलक्षणं संसारोत्तारणसमर्थं तथा 'श्रुतं च' जीवादिपदार्थ संसूचकं 'देशितवान्' प्रकाशितवान् ॥२४॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - पूर्ववर्णित शिक्षाओं का, जिनके उपदेश से अनुसरण करना चाहिए, उस महापुरुष का दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार कहते हैं-जिनकी बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार की ग्रंथियां नष्ट हो गई हैं, जो अनन्त ज्ञान एवं दर्शन से युक्त हैं ऐसे भगवान महावीर स्वामी ने चारित्र रूप तथा श्रुत-जीवादि पदार्थ संसूचक ज्ञान रूप धर्म की देशना दी है ।
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