________________
धर्म अध्ययन टीकार्थ - यहाँ परामत्र का अर्थ गृहस्थ का पात्र है । उस पात्र में मुनि भोजन न करे और पानी भी न पीये क्योंकि उस पात्र में आगे या पीछे के कर्म का-सचित पानी से धोये जाने का, हृत होने का, चोरी चले जाने का, नष्ट होने का, हाथ से गिरकर टूट जाने का भय बना रहता है । अथवा स्थविर कल्पी साधुओं के लिए पात्र रखना विहित है । अतः वे पात्र रखते हैं, क्योंकि उनकी अंजलि छिद्रयुक्त होती है । इसलिए स्थविर मुनि का हाथ का पात्र भी परपात्र है। उसमें वह आहार न करें, तथा उस द्वारा जल न पीये । अथवा जिनकल्पी आदि मुनि पात्र नहीं रखते । उनका पाणी-पाथ या अंजलि ही पात्र है। उनका अछिद्र-छिद्र रहितखूब सटाया हुआ हाथ या अंजलि ही उनका पात्र है । जिनकल्पी मुनि के लिए दूसरे सभी पात्र पर पात्र हैं। उनमें वे संयम की विराधना मानते हैं । अत: संयम टूटने के भय से वे वैसे पात्र में भोजन न करे, पानी न पीये । साधु वस्त्र रहित होते हुए भी पहले या पीछे कर्मादि दोष के भय से अचित्त जल से धोये जाने तथा चोरी हो जाने तथा नष्ट हो जाने आदि के भय से गृहस्थ का वस्त्र धारण न करे, अथवा जिनकल्पी मुनि वस्त्र रहित होते हैं, उनके लिए सभी वस्त्र मात्र ही परवस्त्र हैं । इसीलिए उन्हें वस्त्र धारण नहीं करना चाहिए । इस प्रकार सारांश यह है कि साधु द्वारा परपात्र में भोजन करना आदि संयम का विराधक है । ज्ञपरिज्ञा द्वारा यह जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा उसका परित्याग करे ।
आसंदी पलियंके य, णिसिजं च गिहतरे । संपुच्छणं सरणं वा, तं विजं परिजाणिया ॥२१॥ छाया - आसन्दी, पर्यङ्कञ्च, निषद्याञ्च गृहान्तरे ।
संप्रश्नं स्मरणं वापि, तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥ अनुवाद - साधु आसंदी-मंच या कुर्सी पर न बैठे । वह पलंग पर शयन न करे । गृहस्थ के घर के अन्दर या दो घरों के मध्य में जो संकड़ी गली हो, उसमें न बैठे । वह गृहस्थ का कुशल क्षेम न पूछे तथा पर्वजीवन में की हई अपनी क्रीडा का स्मरण न करे । ये सभी बातें संसार में भटकाने वाली हैं। यह जानकर वह उनका परित्याग करे ।
टीका - 'आसन्दी' त्यासनविशेषः, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात्सर्वोऽप्यासनविधिर्गृहीतः, तथा 'पर्यंकः' शयनविशेषः, तथा गृहस्यान्तर्मध्ये गृहयोर्वा मध्ये निषद्यां वाऽऽसनं वा संयमविराधनाभयात्परिहरेत्, तथा चोक्तम् -
"गभीर झुसिरा एते, पाणा दुप्पडिलेहगा । अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्तीओ वावि संकणा ॥१॥" छाया - गम्भीरच्छिद्राणि प्राणा दुष्प्रति लेख्याः । अगुप्ति ब्रह्मचर्यस्य स्त्रियो वापि शंकनं ॥२॥
इत्यादि, तथा तत्र गृहस्थगृहे कुशलादिप्रच्छनं आत्मीय शरीरावयवप्रच्छ (पुञ्छ) नं वा तथा पूर्व क्रीडितस्मरणं 'विद्वान्' विदितवेद्यः सन्ननायेति ज्ञपरिज्ञयापरिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् ॥२१॥
टीकार्थ - आसन विशेष को आसंदी कहा जाता है, यह उपलक्षण है । इससे सब प्रकार की आसन विधि-आसन विषयक उपक्रम गृहीत होते हैं । शयन-विशेष विशेष रूप से जिसका शयन करने में उपयोग
429