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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
किन्तु हिंसा प्रधान हैं, दोषोत्पादक हैं । जिस बात को लोग बड़े प्रयत्न के साथ प्रच्छादित करते हैं-छिपाये रखते है, वह सत्य हो तो भी नहीं कहनी चाहिए । यह निर्ग्रन्थ प्रभु की आज्ञा है, उपदेश है ।
होलावायं, सहीवायं, तुमं तुमंति अमणुन्नं
छाया
अनुवाद साधु किसी को निष्ठुर या नीच शब्द द्वारा सम्बोधित कर न बुलाये तथा किसी को मित्र आदि के रूप में उदिष्ट कर न बोले तथा किसी को प्रसन्न करने हेतु हे वाशिष्ट गौत्रीया ! हे काश्यप गौत्रीय ! इत्यादि गोत्रों का नाम लेकर किसी को न बुलाये। जो अपने से बड़ा हो उसे तू या तुम कहकर न बुलावे । जो वचन दूसरों को अमनोज्ञ, अप्रीतिकर या अप्रिय लगे साधु सर्वथा वैसा न बोले ।
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टीका किञ्च - होलेत्येवं वादो होलावाद:, तथा सखेत्येवं वादः सखिवादः, तथा गोत्रोद्घाटनेन वादोगोत्रवादो यथा काश्यपसमोत्र वशिष्ठसगोत्र वेति, इत्येवंरूपं वादं साधुनों वदेत्, तथा 'तुमं तुमं' त्ति तिरस्कारप्रधानमेकवचनान्तं बहुवचनोच्चारणयोग्ये 'अमनोज्ञं' मनः प्रतिकूल रूप मन्यदप्येवम्भूतमपमानापादकं 'सर्वश: ' सर्वथा तत्साधूनां वक्तुं न वर्तत इति ॥२७॥
छाया
गोयावायं च नो सव्वसो तं ण
होलावादे सखिवादं, गोत्रवादञ्च नी वदेत् ।
त्वं त्वमित्यमनोज्ञं सर्वश स्तन्न वर्तते ॥
अकुसीले
सुहरूवा
टीकार्थ - किसी व्यक्ति को नीच सम्बोधन से बुलाना होलावाद कहलाता है । हे सखा ! इस प्रकार . के सम्बोधन से आहूत करना सखीवाद है। किसी को प्रसन्न करने हेतु उसके गौत्र का नाम लेकर हे वाशिष्ट गोत्रीय ! हे काश्यप गोत्रीय ! इत्यादि शब्दों द्वारा सम्बोधित करना गौत्रवान है। साधु इस प्रकार वचन न बोले। बहुवचन द्वारा उच्चारण करने योग्य - सम्बोधित करने, योग्य उत्तम पुरुष के लिये तू, तुम जैसे तिस्कारपूर्ण शब्दों का उपयोग न करे। दूसरों के लिये अपमानजनक वाक्य साधु कदापि न बोले। जो मन को बुरा लगे । ॐ ॐ
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वदे ।
वत्तए ॥२७॥
सयाभिक्खू, णेव संसग्गियं तत्थुवस्सग्गा, पडिबुज्झेज
अकुशीलः सदा भिक्षु नैव संसर्गितां भजेत् । सुखरूपा स्तत्रोपसर्गाः प्रतिबुध्येत तद्विद्वान् ॥
अनुवाद - साधु स्वयं सदा अकुशील रहे- अकुत्सितशील युक्त रहे- उच्च आचारवान रहे, कुशीलों की संगति न करे, क्योंकि उसमें सुखात्मक उपसर्ग विद्यमान रहते हैं। विवेकशील साधु इस ओर प्रतिबद्ध रहे । इसे जानकर अपने आप में जागरूक बना रहे ।
भए । विऊ ॥२८॥
टीका यदश्रित्योक्तं नियुक्ति कारेण तद्यथा - "पासत्थोसण्ण कुसील संथवो ण किल वट्टए काउं" तदिदमित्याह - कुत्सितं शीलमस्येति कुशीलः स च पार्श्वस्थादीनामन्यतमः न कुशीलोऽकुशीलः 'सदा' सर्वकालं
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